बचपन की याद..
बचपन की याद..
कभी हम भी बच्चे हुआ करते थे पता नहीं क्यों बड़े हो गए.. खुद हुए या बना दिए गए याद नहीं... माँ तो कहतीं हैं कि हम तो पैदायशी दादी अम्मा हैं..
बाल सुलभ आदतें ज्यादा रहीं नहीं.. ऐसा माँ कहतीं हैं.. बचपन से हिटलर शाही स्वभाव रहा.. जिसे आज हमारे कुछ मित्र खड़ूस का नाम देते हैं..
पता नहीं कैसे जीव रहे हैं.. बस देना ही आया है.. मांगने की आदत नहीं रही.. इंसानों को तो दिया ही.. ईश्वर ने भी माँगा उन्हें जो चाहिए था... हम पर उपरवाले की कुछ ज्यादा अनुकम्पा रही है.. इसलिए सबसे अनमोल चीज़ मांग ली..
बचपन की एक घटना याद आती है....
पिताजी की लाड़ली थे... उनके सारे वक़्त पर हमारा एकाधिकार होता था जब वो घर पर होते थे.. हमारे सारे काम उनके साथ.. यहां तक कि अपनी चोटी भी उनसे बनवाते थे...
पिताजी रेल्वे में ड्राईवर थे... तो घर में कम ही होते थे..
साल में एक बार हम सबको पिताजी तीर्थयात्रा पर ले जाते थे.. वो यात्रा हमें बेहद प्यारी होती थी.. पिताजी की उंगली पकड़े ठुमक ठुमक घूमते थे.. मन्दिरों में.. चूंकि हर साल जाते थे तो जहां हम लोग रुकते थे.. उनसे हमारे पिताजी की अच्छी जानपहचान हो गई थी... वैसे तो काफी जगह जाते थे पर चित्रकूट हमेशा जाते थे... वहां पर एक धर्मशाला था...उसके जो मालिक थे वो पिताजी के बेहद अच्छे मित्र बन गए थे.. और हम उनकी चहेती...
हम शायद 7 या आठ साल के रहे होंगे... उस उम्र या उस से पहले की उम्र की सारी बातेँ तो अच्छी तरह याद नहीं.. पर काफी सारी बातेँ याद हैं..
मतलब हमारी याददाश्त काफी अच्छी है इस लाइन को पढ़कर किसी को जरूर हँसी आ रही होगी..
आगे बढ़ते हैं... तो एक बार जब हम उस धर्मशाला में रुके थे.... मंदिर से दर्शन करके लौटे तो उन अंकल ने हमें रोक लिया... हमें प्यार किया और बहुत सी चाकलेट अपनी हथेली में रखकर हमारे सामने रख दिए.. उसमें से एक चाकलेट हमने उठाई.. तो हँसते हुए उन्होंने कहा..
बस एक.... हम ने कहा... जी..
बेहद प्यारी है आपकी मुनिया..
पिताजी हमें इसी नाम से बुलाते थे.. उनका सुनकर अंकल भी हमें मुनिया कहते थे..
दूसरे दिन हम वापस आने वाले थे.. कुछ देर में हम माँ के पास कमरे में आ गए.. पिताजी अंकल के साथ बैठे रहे..
शाम को अंकल ने हमें बाहर से आवाज लगाई..
मुनिया बाहर आओ बेटा..
हम बाहर आए..
कहिये अंकल..
देखो तुम्हारे लिए क्या लाए हैं.. ये कहते हुए उन्होंने एक बड़ी सी डॉल हमें पकड़ा दी.. काफी बड़ी थी..
आदत नहीं थी कि झट से किसी से कुछ लेने की..
लो न बेटा... आपके लिए है,, बिल्कुल आपके जैसी है देखो..
माँ पिताजी ने कहा ले लो बेटा..
और गुड़िया हमारे हाथ में थी... ऐसा लगता था कि बस अब बोल पड़ेगी.. ऐसी गुड़िया हमने कभी नहीं देखी थी..
हम उसके साथ मग्न हो गए..
अब हम और गुड़िया... बस और कुछ नहीं..
हर पल वो हमारे साथ होती..
कुछ दिनों बाद हम बेहद बीमार हुए.. और ऐसे बीमार की डॉक्टर भी परेशान की हम ठीक क्यों नहीं हो रहे.. बहुत इलाज हुआ.. डॉक्टर भी बदले गए.. पर कोई असर नहीं.. हालत ऐसी हुई कि बिस्तर से भी उठ नहीं पाते थे.. माँ पिताजी को जो जैसा बोलता था वही करते.. फिर किसी ने उन्हें कहा कि बिटिया को काशी ले जाओ.. वहां किसी जगह का पता दिया कि वहां से हर इंसान रोगमुक्त होकर लौटता है..
पिताजी ने जाने का इंतजाम किया.. हम इतने ज्यादा कमजोर हो गए थे कि अपनी उस गुड़िया को भी नहीं उठा पाते थे.. तो पिताजी से कहा कि इसे भी रख लो.. हमारे बाजू में उसे रख दिया जाता..
काशी पहुंचे.. जहां का पता दिया गया था उनसे पिताजी मिले.. उन्होंने हमें देखा.. एक हाथ में गुड़िया को लिपटाये बैठे थे...
उन्होंने पिताजी को कोई जगह बताई.. और कहा बिटिया को वहां प्रणाम करवा कर उस मन्दिर के पीछे जो स्थान बना है वहां उसके पहने हुए वस्त्र को उतार कर छोड़ आओ.. और वहीं के कुंड में स्नान करवा दो..
उनकी बातों का अनुसरण हुआ.. इस चक्कर में हमारी गुड़िया को किसी और गुड़िया ने उठा ली.. हम जैसी बच्ची थी.. शायद मन्दिर के किसी पुजारी की बिटिया थी..
हम उसे देख रहे थे कि शायद लौटा देगी.. पर उसने उसे ऐसे कस के पकड़ रखा था जैसे किसी हालत में वो नहीं छोड़ेगी.. पुजारी जी आए उन्होंने उसे कहा दे दो बिटिया ये उस बच्ची की गुड़िया है.. पर वो नहीं मानी..
हम ने बेहद धीरे से पिताजी से कहा.. बस एक बार हमें उसे दे दें... हम देखकर वापस कर देंगे..
बमुश्किल वो लड़की मानी.. हम ने उस गुड़िया को बड़े प्यार से देखा.. और उसकी तरफ बढ़ा दिया..
हम तो उदास थे.. पर उस दिन वो गुड़िया भी हमें उदास लगी.. हमेशा के लिए हम बिछड़ रहे थे..
उसके बाद हम पूरी तरह स्वस्थ हो गए.. शायद गुड़िया को वहां छोड़कर शिव को साथ ले आए थे...
