मेरा रब
मेरा रब
आजकल बारिश ने जैसे तय कर लिया कि रुकना ही नहीं है... वैसे भी सावन की झड़ी तो लगी हुई है.... मौसम का मिजाज भी बदल गया है...
हमारी तो शिव से प्रार्थना रहती है कुछ घण्टों के लिए बरखा रानी को रोक दें,,
कभी कभी तो हम ही कह देते हैं,,,,,,
बरखा बैरन जरा थम के बरसो
पी मेरे आ जाएं तो चाहे जम के फिर बरसो,,
बड़ा प्यारा और मीठा सा गीत है... जनाब के सामने एक बार गा भी चुके,,, ये बात अलग है कि वो वैसे भी नहीं आने वाले थे... बस फोन पर सुना दिया,, और वाह वाही लूट ली...
हां तो हम कहां थे ओह मौसम की बात कर रहे थे,,
आज बेहद तेज बारिश हो रही थी...हम मोबाइल में व्यस्त थे,, बांसुरी की बड़ी मीठी सी तान सुनाई दी... सोचा ऐसे मौसम भला कौन बांसुरी बजा रहा है...
माँ,, ये आवाज कहां से आ रही है..
अपने कमरे से बाहर आएगी तो पता चलेगा कि कहां से आ रही है,,, ना जाने हफ्ते के तीन दिन खुद को कुंए का मेंढक बना लेती है,,
आज माँ का मिजाज कुछ उखड़ा सा लगा,, हम ने सोचा बाहर निकलना ही सही है,,
क्या बात है माँ,, गुस्सा क्यों हो,, और ये तीन दिन की बात क्यों??? हम तो आते हैं न बाहर,,, कुछ देर के लिए ही कमरे में जाते हैं,,, उस पर भी इतना गुस्सा...
हम ने इशारे से भाई से पूछा कि क्या बात है...
उन्होंने हमें चुप रहने का इशारा किया...
पर हम भला कैसे चुप रहते,, माँ की गोद में सर रखकर लेट गए और प्रश्न दोहरा दिया...
आपने तीन दिन की बात क्यों की..
अरे,, क्या गलत कहा मैंने,, हफ्ते भर के चार दिन ऐसे फुदकते रहती है जैसे कुबेर का खजाना मिल रहा है,, और तीन दिन कुंए की मेंढक बन जाती है,,
हे शिव,,, हम ने तो कभी सोचा ही नहीं था कि हमारी गतिविधियों पर इतनी पैनी नजर रखी जा रही है.. सही कहा गया है,, माँ की नजरे किसी एक्स रे मशीन से कम नहीं होतीं...
अच्छा माँ,, सुनो न.. हम ने जरा मक्खन बाजी की..
अब बिल्कुल चुप,, मुझे फिल्म देखने दे.
ओह,,,कौन सी फिल्म है कहकर हमने उधर नजर घुमाई..
अच्छा,,, तो यहां से आवाज़ आ रही थी बाँसुरी की... कान्हा जी बजा रहे थे..
और हम भी माँ की गोद में लेटे लेटे फिल्म देखने लगे... वैसे तो सब कुछ देखा हुआ है,, कई कई बार...पर अच्छा लगता है ऐसी फ़िल्में देखना...
एक सीन शुरू हुआ,,,, कृष्ण जब मथुरा जाते हैं, तो वहां कुब्जा उनके सामने आती है,, और कृष्ण उन्हें सुन्दरी कहकर संबोधित करते हैं..
फिल्म के कुछ अंश.......
अरे सुन्दरी,,, कहां जा रही हो.. मुस्कराते हुए कृष्ण उसका रास्ता रोकते हैं..
अपमान और क्रोध से वो कृष्ण को देखती है...
एक कुरूप और कुबडी स्त्री को सुन्दरी कहकर मेरा परिहास कर रहे हो....
नहीं देवी,,,, तुम तो अति सुन्दर हो...
कुब्जा क्रोध में कुछ कह नहीं पाती... बस आग्नेय नेत्रों से कृष्ण को देखती है...
मैं सच कह रहा हूं सुन्दरी.... तुम बहुत सुन्दर हो...
तुम्हें मेरी कुरूपता नजर नहीं आ रही है..
नहीं देवी,,,,, क्योंकि मैं तुम्हारी आत्मा की सुन्दरता देख रहा हूँ..
हम एक झटके से उठ गए....
अब तुझे क्या हुआ,, माँ ने पूछा...
हम ने ना में गर्दन हिला दी,,, और ध्यान से कृष्ण की बातेँ सुनने लगे...
मैं किसी के शरीर की सुन्दरता नहीं देखता देवी.... मैं तो बस आत्मा को निहारता हूं,,,और जिसकी आत्मा सुन्दर हो, वो तो सारे जग में सबसे ज्यादा सुन्दर होता है...
कैसे भला....
मैं दिखाता हूं,,,, ऐसा कहकर कृष्ण उसके हाथ की छड़ी ले लेते हैं,, वो गिरने को होती है तो कृष्ण उसका हाथ थाम लेते हैं...
लाओ मेरी छड़ी दो,,, मुझे जाना है...
जिसका हाथ मैं थाम लेता हूं देवी, उसे फिर कहीं जाने की आवश्यकता नहीं होती... वो मुझमें ही समाहित हो जाता है..
और अगले पल कुब्जा एक खूबसूरत स्त्री में परिवर्तित हो जाती है.... उसके तेज़ से चहूँ ओर प्रकाश ही प्रकाश फैल जाता है..
हम उठकर इसलिए बैठ गए थे कि ऐसा कुछ हम भी कहते हैं तो बिल्कुल यहि ज़वाब मिलता है हमें जनाब से..
इसलिए शायद हमें उनमें रब नजर आता है... उनकी बातेँ ही ऐसी होती हैं, जैसे शिव वाणी..
उनका तो एक ही रूप है,,, पर उनके सामने हम खुद को कभी मीरा कभी राधा कभी शबरी कभी अहिल्या को देखते हैं और आज कुब्जा में भी हमने खुद को देख लिया...
और सामने श्री तो थे ही,,, कृष्ण के रूप में.....

