अधूरे से ख्वाब..
अधूरे से ख्वाब..
बरसों से बंद रखा था दरवाजा,,, रोशनी से परहेज किया,, पर लगता था दरवाज़ा कुछ पुराना हो चला था,, अब उसकी दरारों से थोड़ी सी रोशनी अंदर आने लगी थी...
पर उसे तो वो भी कबुल नहीं था... उसने एक मजबूत कपड़े से उस दरार को बंद कर दी... अब अंधेरे में फिर अपनी अकेली दुनिया में गुम,,,
कुछ लापरवाही हुई,, दरवाज़ा कुछ ज्यादा पुराना हुआ,,, हवा का एक तेज झोंका उस कपड़े को हटाते हुए अंदर आया,,,
बरसों से अंधेरे में रहने की आदी, उसकी आँखों में हवा के साथ एक रोशनी टकराई...
आँखों को मलते हुए उसने उस रोशनी की तरफ देखा...
ये क्या???? जानी पहचानी सी खुशबु से वो लिपट सी गई,, उसे लगा उसके लिए फिर वही चिरपरिचित दरवाज़ा खुल गया,, जिसे खोलकर वो अब नयी दुनिया बसाएगी,,
दिन रात पलों में बदल गए,, चेहरे पर जैसे नूर आ गया,, हर दिन होली और रात दिवाली हो गई... जैसे सारी दुनिया उसकी मुट्ठी में समा गई,,
सब कुछ बदला सिवा एक बात के,,, उसके स्वभाव की गम्भीरता और ठहराव,,, इसके चलते वो बता भी नहीं सकी की उस खुशबु में उसकी दुनिया समाहित है,,,,
समाज के रिश्ते नातों के थोड़े से बंधन ने उसे भी बाँध रखा था,,, आसमान में उड़कर वो उस खुशबु को खोना नहीं चाहती थी,, सबसे बचाकर सारी उम्र वो उसमें गुम रहना चाहती थी,,,
पर,,,,,,,,,,,, खुशबु को भला कोई कब बाँध सका है,,,
वो खुशबु उसके अस्तित्व को चीरती हुई उसके इर्दगिर्द इस कदर फैली कि वो ही गुम हो गई...
और एक दिन वो पूरी तरह उस से जुदा हो गई... पागलों की तरह वो उस खुशबु का इंतजार करने लगी...
पर,,,, आखिर हवा तो हवा थी,,,, गई तो फिर गई,,, जब इंतजार करते वो थक गई....
आँखे भी पथरा गईं,, शरीर भी निस्तेज,,,
लड़खड़ाती सी फिर वो अपने बंद दरवाजे के सामने खड़ी थी.... पर ये क्या, दरवाज़ा तो पूर्ववत बंद ही था,,,, तो वो बाहर क्यों और कैसे आई,,,,,
दिमाग पर जोर दिया,,, शायद अंधेरों की अभ्यस्त आँखों ने कोई ख्वाब कोई ख्याल बुन लिया था,,,,
और एक बार फिर उसने दरवाजे को मजबूती से बंद किया,, उसके हर दरार को भरा,,,
अब हमेशा के लिए...........