अभिशप्त जीवन

अभिशप्त जीवन

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फोन की घंटी बजी "हेलो...मैडम मैं गीता बोल रही हूँ,कल भी फोन किया था मैंने, पर आपने फोन उठाया नहीं मैं तीन दिन से बीमार हूँ... बिस्तर से उठा नहीं जा रहा है।"

सुमित्रा बीमारी का नाम सुन थोड़ी आवाज़ धीमी कर बोली, देखो काम तो बहुत पड़ा है,आज किसी को भेज तो दो" आज वह काम वाली पर काफी गुस्से में थी, तीन दिनों से वह काम पर नहीं आ रही थी। आधा घंटा ही अभी बिता होगा और दरवाज़े की घंटी बजी, सुमित्रा ने दरवाज़ा खोला...अरे तुम! इस हाल में ! क्यों आई?" गीता की हालत बुरी, आँखें भी ठीक तरीके से खुल नहीं रहे थे। 

"क्या करूँ मैडम, किसे में कहती काम के लिये, दूसरे किसी को मैं जानती भी नहीं..."

सुमित्रा ने उसे काम करने से मना किया तो उसने कहा कि मैं उसे काम करने दूँ, अकेले मेरे 'नहीं' कहने से क्या...दूसरे घरों में तो उसे किसी भी हालत में करना ही होगा। 

"मैडम यह मेरे पति के नशे का कमाल है कि मैं इतने बड़े बच्चों की माँ होकर भी हमेशा गर्भवती होती हूँ और लोक लाज के मारे मुझे उस निशानी को समाप्त करना होता है, आज आपके घर में उसी हालत में आई हूँ ... क्या करूँ हम कामवालियों की हालत तो यही है... इज़्ज़त की जिंदगी जीने के लिये दिन-भर घर परिवार,बच्चों के लिये रोज़ी रोटी के लिये मेहनत करते हैं और रात होते ही नशे में धुत पति की आवश्यकताओं की पूर्ति...और ऐसा ना हुआ तो मार-पीट जो भी हो, पर ऐसा भी हो सकता है कि वह दूसरी स्त्री के पास चला जाय...क्या करूँ ?"

सुमित्रा उसकी बातें सुन, सोच रही थी कि हमारा ध्यान तो बस मध्यम या उच्चवर्गीय महिलाओं की

संघर्ष, प्रताड़ना और त्याग की खबरों पर ही भावुक हो उठता है।  जबकि ऐसे किस्सों के परिणाम आमतौर पर सकारात्मक ही होते हैं।  यहाँ तो एक वर्ग ऐसा भी है जहां की महिलाओं को वो रौशनी कभी मयस्सर ही नहीं जिसकी वो हक़दार हैं। 

गीता अपना काम निपटा कर जाते हुए कहती गई_ "समझ में नहीं आता कि भगवान हमसे भला ऐसी परीक्षा क्यों ले रहे हैं ! हमने जिंदगी किसी वादे पर तो नहीं मांगी थी...! फिर हमारे साथ ही ऐसा क्यों?


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