पहला प्यार :प्रेम परिभाषा

पहला प्यार :प्रेम परिभाषा

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सीता तैयार हो रही थी कि आज अपनी सखी के मेंहदी के रस्म अदायगी में जाना था, सुबह से ही जाने की तैयारी में व्यस्त सीता की सोच दूसरे मार्ग पर भी चल रही थी। आज मेंहदी की रस्म ही नहीं थी बल्कि एक कार्यक्रम फरवरी (प्रेम मास) के महीने पर भी रखा गया था...सखी ने यह शर्त रखी थी कि हर कोई अपने पहले प्यार को आज ज़रूर बताएगा और ऐसे में किसी को भी बख्शा नहीं जाएगा। यह शर्त सुनने में जितना आसान लग रहा हो पर उतना आसान था नहीं, कोई व्यक्त करे भी तो कैसे..! हो सकता था कि इतने लोगों के सामने पोल खोल हो जाये..."तौबा-तौबा इस लड़की ने शर्त भी रखी तो भला कैसी! ना जाने आज कौन सा, किसके पर कहर बरपा हो जाये..."

सीता याद करने लगी कि भला उसका पहला प्यार कौन था? वो जो जन्मदात्री थी जिसने उसे प्यार की मीठी लोरी सुनाई थी और फिर दुनिया से परिचय कराया, नहीं-नहीं माँ भला पहला प्यार कैसे हो सकती है उसे तो सीता ने हमेशा घर के बंधनों में उलझा पाया था। तो फिर वह उसका पिता को, जो हमेशा अपनी बिटिया को सामने देख खुशी से फूले नहीं समाते...उनका दोनो हाथों को फैला बेटी को बांहों में भर लेना...शायद यही तो पहले प्यार का दीदार था... पर यह भी प्यार नहीं हो सकता, क्योंकि यह तो पिता की ओर से मिला शुभ संकेत था कि जबतक मैं हूँ तुम सुरक्षित हो, मेरे साथ भी और मेरे बाद भी। पिता की अनुपस्थिति में भी उनकी छाया उसे मजबूत और साहसी ही बनाए रखेगी, यह एक पिता का उसकी बेटी को दिया आश्वासन ही तो था। फिर, बचे भाई -बहन ...वहाँ तो हमेशा 36 का आंकड़ा रहता था, आपस में प्रतिस्पर्धा पढ़ने में कुछ अच्छा करने की या फिर प्रतिस्पर्धा इस बात की कि घर में किसे अधिक महत्व मिलता है...तो यहाँ प्यार पनपता भी कैसे!

सीता परेशान हो रही थी कि वह 'पहला प्यार' में किसका नाम ले...?

किशोरावस्था तो दोस्तों से सिनेमा के किस्से सुनते-सुनते बीते, और तब, प्यार कोई अच्छी बात थोड़े ही ना होती थी.'प्यार' शब्द कहते ही चेहरे पर सबों के चेहरे पर शर्म आ जाती थी..प्यार की समझ बस इतनी ही तो थी। लड़कियों के स्कूल में पढ़ते हुई प्यार की सोच रखना तो मूर्खता थी, मोबाइल का कोई समय भी नहीं था कि नंबर का आदान -प्रदान हो...गलियों में चक्कर लगाते छोरों को देख एक अंदाज़ा लगाया जाता था कि प्रेम की गली में किसका टांका भिड़ा।

कॉलेज जाते हुए माँ की हिदायत थी कि "पढ़ने जा रही हो तो इधर-उधर देखने की जरूरत नहीं" यदि ऐसा हुआ भी तो माँ तभी हामी भरेगी कि लड़का आई ए एस हो और जात बिरादरी का भी ध्यान रहे... प्रेम की गली में क्या इन बातों को देखते-समझते कदम बढ़ता है भला? उसने तो जैसे तौबा ही कर ली थी कि वह किसी अजनबी की तरफ आँख भी उठा कर जो देखे...!

परन्तु कॉलेज जा कर सीता की समझ धोखा खाने लगी, कई दोस्त बने तो थे और तब ऐसा लगा था कि आसक्ति ही शायद प्रेम हो... पर ऐसा प्रेम किस काम का जिसमें उसे विशेषताएं अपने से कुछ अधिक ना दिखे । पर ज्यों ही प्रेम में जोड़-तोड़ दिखे तो वह क्या प्रेम रह जाता है...! फिर तभी याद आ जाती थी माँ की कही बातें...प्रेम होता भी तो कैसे? प्रेम ना उम्र देखती है ना ही सुंदरता....प्रेम तो बस व्यक्ति के प्रेम के मर्म को पहचानती है और फिर उड़ने लगती है खुद के बनाए कल्पना के आकाश में, जहां ना कोई जाति ना धर्म और ना ही ऊँच-नीच का भाव ही पैदा होता है...

सीता ने तो किताबों के माध्यम से भी प्रेम को समझना चाहा था, पर वहां भी प्रेम की पूर्णता कहाँ दिखी! मीरा बाई को ले लीजिए, हमारे भारतीय संस्कृति में तो पहले भी आमतौर पर प्रेम एक तरफ़ा ही हुआ करता रहा है...पहले भी प्रेमी सोचता ही रह जाता कि अब क्या करूँ और जब किसी निर्णय पर पहुंच भी जाता तो गाड़ी अगले स्टेशन के लिये चल चुकी होती थी....

शाम होने को आ रहा था पर सीता अपना पहला प्यार याद नहीं कर पाई...

सहसा उसे याद आया कि बचपन मे उसके पड़ोस में दो विदेशी शोधार्थी आये थे जिनमें से एक जापानी था और उसे हिंदी भी बोलने आती थी, सीता उस समय 8वीं कक्षा में पढ़ती होगी शायद...उस जापानी शोधार्थी को सभी उसके नाम 'मिस्टर योंग' कह कर बुलाते थे। सीता को देख वह बहुत खुश हो जाते थे और यही कारण रहा कि मिस्टर योंग की सीता के पिता से काफी घनिष्ठता हो गई, मिस्टर योंग का उसके घर में परिवार संग घंटों बातें करना और रात के खाने पर मेहमान होना, सीता के एक तरफ़ा प्रेम भावना को प्रगाढ़ किये जा रही थी। भविष्य की सोच ही कहाँ थी, वर्तमान जो इतना सुंदर लग रहा था, ये बात और थी कि योंग चूंकि जापानी मूल के थे तो उनकी शारीरिक बनावट से उनके उम्र का पता नहीं चलता था। वह सीता के पिता से मात्र दो साल छोटे थे, पर सीता तो आसक्ति में जी रही थी, अकेले ही अकेले में सीता कितनी ही कल्पना के उड़ान भर रही थी। कभी ख़ुशियों में पागल हो खुद में ही मुस्कुरा जाना और कभी किसी बात को सोच, डर से सहम जाना...यह सिलसिला 6 महीनों तक चला, विदेशी बाबू कोई वहाँ बसने तो आये नहीं थे, एक दिन सीता के घर आकर उसके परिवार को ढेरों तोहफे दे गए। साथ ही,अगले दिन अपने देश प्रस्थान होने की खबर भी बता गए, बिचारी सीता के मन की बात आखिर समझने वाला कौन था, जब परदेसी बाबू को ही उस बात का अंदेशा ना हुआ, वह तो उसे बेटी की तरह मानते थे...

अब सीता ने थोड़ी राहत की सांस ली, उसे लगा कि अब शाम के कार्यक्रम में जाने पर उसके पास भी मेहमानों को बताने के लिये उसके 'पहले प्यार' की कहानी है। मन ही मन वह खुश हुए जा रही थी कि तभी उसके पति ने पीछे से कंधे पर हाथ रखते हुए प्यार से पूछा "किन खयालों में खोई हुई हो, अब तक तैयार नहीं हुई...मेंहदी की रस्म अदायगी में नहीं जाना है क्या! चलो जल्दी से तैयार हो लो "

सीता को आभास हुआ जैसे अचानक से किसी ने मानो नींद से जगाया हो...भ्रम की दुनिया से निकाला हो और फिर से उसके दिल ने कहा_"अरे बेवकूफ तुमने फिर से आसक्ति को प्रेम मानने की गलती की है, वो तो तुम्हारा बचपना था, तुम्हारा पहला प्रेम तो तुम्हारा पति है, जिसने तुम्हारा उस दिन दिल जीता था। याद है ना...की जब तुम विवाह के कुछ महीनों पश्चात बीमार पड़ी थी तो कैसे ऑफ़िस से लौट के तुम्हारे हाथों में फ़िल्म 'अभिमान' (अभिमान सिनेमा में जो प्रेम गाने थे, सीता उसे ही भविष्य का सपना मान बैठी थी और आज ये सब...) का कैसेट थमहाया था और अपने पास बिठा रसोई बनाने लगे थे। तुमने गाने जो चलाए...गानों की शुरुआत ही हुई थी "कि आय-हाय तेरी बिंदिया रे..." इस गाने के समापन होते-होते कैसे तुम दोनों एक हो गए थे और आजतक वो गाना और तुम दोनों का साथ ...सीते! तो अब बोलो पहला प्यार कौन? आसक्ति या तुम्हारा पति?

सीता जा तो रही थी अपने सखी की मेंहदी पर, परन्तु उसे उतने सालों पहले हाथों में लगी मेंहदी की खुशबू,रंग और वो गाना लगातार याद आये जा रहा था, उसकी उन शरमाई हुई आँखों मे पहले प्यार को अब भी देखा जा सकता था।

वो प्यार जो उसके साथ था, वो प्यार जो उसके सदा के लिये था।


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