भगोड़ा कहीं का

भगोड़ा कहीं का

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"बहू कहां हो...इधर तो आओ....जरा नज़रें उतार दूँ.... जरूर तुमने कुछ अच्छे कर्म किये होंगे जो इतने साल बाद तुम्हारी खुशियां लौट रहीं हैं."

शीला_" ऐसा क्या हो गया अचानक से....और किन खुशियों की बात कर रहीं हैं आप...." (शीला को तो अरसा हो गया था सास को खुश होते देखे, दो मीठे बोल ही कभी कानों में पड़ जाते,तो फिर आज सूरज किधर से...)

"अरे अपना शिव वापस आज घर आ रहा है."

शीला को तो लगा जैसे वह शिथिल पड़ गई है,उसके दृष्टि पटल पर कागज़ का वो टुकड़ा नाचने लगा जिस पर लिखा था...

"शायद मुझे खुद को समझना है,मेरा इंतज़ार मत करना,रहूंगा तो इसी दुनिया में, कब और कैसे...पता नहीं.ईश्वर ने चाहा तो मुलाकात होगी_शिव". उस रात के अंधेरे में वह बहुत रोइ थी, पर कब तक!!! उसी कागज़ के टुकड़े को अपना प्रकाशपुंज मान,शिव के इंतज़ार में दुबारा से उठ जीने लगी थी और शुरू कर दिया था अपनी परछाई से ही बातें करना.अब उसे औरों की सुध कहां और शिव कहां... प्रकाशपुंज ही तो उसके "शिव" थे...खुद को संभालते हुए वह फिर से अपनी परछाई से बातें करने लगी _ "क्या सचमें मुझे शिव की प्रतीक्षा है....क्या मैं शिव को फिर से उन्ही नज़रों से देख पाऊंगी, जैसे पहले देखा करती थी...और, मेरे इस प्रकाशपुंज का तब क्या होगा ?क्या अब मुझे इसकी जरूरत नहीं होगी ?पर मुझे तो इसकी आदत हो चुकी है...."

तभी भीड़ और शोरगुल की आवाजें आने लगी...लोग कह रहे थे "शिव आ गया...शिव आ गया...

उन आवाज़ों के बीच से चीरती हुई एक आवाज़ शीला को स्पष्ट सुनाई दी _"तब जो चौखट लांघा था तो आज आया है...देखें कितने दिन टिककर रहता है...भगोड़ा कहीं का...."


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