माटी की मूरतें
माटी की मूरतें
हमेशा ही तो इसी रास्ते से बेटे को उसके ट्यूशन पहुंचाया करती हूं.रास्ते में रोड के किनारे एक स्थान पर माटी की मूरतें और बर्तन का अंबार लगा रहता है जिसकी गढ़न और कलाकारी मुझे हमेशा अपनी ओर खींचती हैं.आज ना जाने क्यों अपनी गाड़ी से उतर मिट्टी के बर्तनों की ओर चल पड़ी.मैं नहीं जानती कि माटी की मुरतों ने अपनी ओर खींचा या वहीं बैठी एक छोटी सी बच्ची ने जो गीली मिट्टी को एक रूप देने का प्रयास कर रही थी.पास बैठा उसका छोटा भाई लगातार रो रहा था.इन दोनो के मैले तन पर अपर्याप्त कपड़े..
मैंने पूछा बेटा क्या कर रही हो और ये इतना रो क्यो रहा हैं... माँ कहां है?
"माँ कमाने गई है.इसे जोरों की भूख लगी है."
"तो इसे खाने को तो दो, तब से रो रहा है बिचारा..."
"घर में खाने को कुछ नहीं है...इसे ही चुप कराने के लिये ही तो मूरत बना रही हूं.इसे देख, खिलौना समझ चुप हो जाएगा...और मां इसे बेच कुछ पैसे भी कमा लेगी..."
"आंटी देखो ना...नवरात्रे आ रहे हैं,मैंने कितनी सुंदर देवी की मूर्ति बनाई है.इसे अमीरों वाली साड़ी और ढेर सारे गहने पहनाए हैं..."
मैं हैरान हो रही थी कि इतनी कमी और उस पर भोजन का अभाव भला इतननी सुंदर सोच भी कैसे सकता है !"तुमने ये सब कैसे सोचा!"
"यहाँ से जो अमीर लोग आते जाते हैं मैं उन्हें गौर से देखती हूँ.मेरा भी मन होता है अमीर बनने का..."
"मैं देवी की मूर्ति बनाते हुए भगवान से प्रार्थना करती हूं, हे भगवान! हमें भी अमीर बना दो..."
तभी बच्ची की माँ दो रोटी हाथ में लिए आती है...क्या बोले जा रही है ! हाथ तो चला...जानती नहीं हम गरीबों का कोई भी नहीं...देख कैसे हाथ पे हाथ दिए बैठी है ...अब तक ना बनी तुझसे एक भी मूरत...क्या बेचूँ !पैसे कहां से आएंगे?
"मैडम एक ऊपरवाला भी माटी की मूरत बना रहा है और ये भी माटी की ही मूरतें हैं.तुम जो इसकी कीमत लगाते हो ना...वो हमारे सपने हैं जो कभी पूरे नही हो सकते...वो हमरा दिल का टुकड़ा है ,ईमान है,भगवान है तब जाकर उसमें वो भाव आते हैं..."