अनमोल पिंजड़ा

अनमोल पिंजड़ा

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"बेटी प्रिया ....

यह पिंजड़ा तुम्हें कहां मिला!मैंने तो इसे छुपा कर रखा था..."

"मां, उस तह खाने वाले कमरे में, उस पुरानी सी चौकी के पीछे..."

"मां, मैं भी एक पंछी पिजड़े में पालना चाहती हूं...उसे दाना दूँगी और इंसानो की बोली सिखाऊंगी...कितना अच्छा लगेगा ना ... जब वह हम जैसी बोली बोलेगी...

अरे बेटा ! अरे बेटा, ना रे ना...

यह उस पक्षी के लिए कैद होगा ...चाहे उसे कितना ही सुख देना चाहो... अपने परिवेश से कटकर रहना ही तो कैद है बेटा...

तभी मां बेटी के संवाद मध्य नानाजी चाय की फरमाइश करते हुए..."अरे ये पिंजरा !!! अभी तक.… "

"हाँ बाबूजी ...यह पिंजड़ा अभी तक मैंने सम्भाल रखा है मुझे याद है आपकी कही वो बातें..."

...."मुझे भी याद है बेटा..."" जब, तुम अपनी पढ़ाई के अंतिम पड़ाव पर थीं और भविष्य की ओर कदम बढ़ा रही थी , तब,मैंने तुझे यह छोटे से खिलौने वाला पिंजड़ा दिया था(हालांकि सुंदर था और उसमें प्यारे से तोते की मूरत भी थी)... कहा था तुझसे .... अब तुम्हे अपने जीवन का चुनाव खुद ही करना होगा... लक्ष्य तुम्हारे सामने है."


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