आवाज़
आवाज़
“देखिये ११ बजा नहीं कि सबके छत पर जाने का सिलसिला शुरू हो गया। सुन रहे है आवाज़ हंसने गाने की। अब छत पर जाकर छमछम करना शुरू कर देगी। लगता है डांस-वांस करती है। तभी तो कभी पायल की आवाज़ तो कभी धम-धम की आवाज़ आती है।” रश्मि बिस्तर का चादर झाड़ते हुए कहती है।
“उससे तुम्हें क्या लेना देना ? जल्दी से बिस्तर कर दो मुझे नींद आ रही है।” सिन्हा साहब एसी का स्विच ऑन करते हुए कहते हैं।
“आप घर में आते नहीं है कि आपको नींद आने लगती है।” रश्मि थोड़ा खीझते हुए कहती है।
दिलीप कुमार सिन्हा बैंक में अधिकारी हैं। छह महीने पहले ही उनका दिल्ली से भुवनेश्वर ट्रांसफर हुआ है। वे पहले यहां आकर ज्वाइन कियें। उसके बाद उन्होंने रहने के लिए किराए का मकान ढूंढना शुरू किया। मकान उन्हें जल्दी चाहिए था। दो-चार मकान देखने के बाद एक बड़े से कंपाउंड में उन्हें एक बड़ा सा घर दिखा। घर क्या था हवेली थी। वह गली के अंत में था। उसके बाद खाली जगह थी। दूर-दूर तक न तो कोई आबादी थी और न ही कोई घर। सिन्हा साहब ने सोचा ये ठीक रहेगा। रहने के लिहाज़ भी और बच्चों के खेलने के लिहाज़ से भी। और, उस पर से शांत जगह थी। घर के मालिक से बात की। मालिक ने उन्हें कमरे दिखा दिए। बड़े-बड़े कमरे और बड़ा-सा हॉल देखकर उनका मन गदगद हो गया। पानी के लिए बोरिंग लगा था। कंपाउंड इतना बड़ा था कि गाड़ी के पार्किंग के लिए सोचना ही नहीं था। उन्होंने घर के मालिक को फ़टाफ़ट एडवांस दे डाला। इधर एडवांस दिया और उधर रश्मि को मोबाइल से कॉल कर दिया।
“रश्मि, मकान मिल गया है। बहुत अच्छा मकान है। मकान क्या महल है। मैं पैकर्स वाले से बात करके तुम्हें बताता हूं। वहां से सामान निकलने के बाद तुमलोग फ़्लाइट से आ जाओ। सिन्हा साहब का परिवार छोटा परिवार सुखी परिवार के तर्ज़ पर है। मतलब हम दो हमारे दो। इस तरह का नारा आपको किसी भी सरकारी अस्पताल के दीवारों पर लिखा मिल जायेगा। परिवार में उनकी पत्नी रश्मि, बेटा पियूष और बेटी आशी है। हर दृष्टिकोण से एक नपा तुला परिवार है। सिन्हा साहब जिस घर में रहने आये हैं। उसमें तीन फ्लोर है। ऊपर के फ्लोर पर सिन्हा साहब हैं। नीचे वाले फ्लोर पर चार लड़कियां रहती हैं। जबकि बीच का फ्लोर खाली है। जिस दिन से सिन्हा साहब आये हैं, उसी दिन से इस तरह की आवाज़ें आती रही हैं।
“गर्मी का दिन है। अब रात में छत पर नहीं जायेंगे तो कहां जायेंगे।” सिन्हा साहब बिस्तर पर लेटते हुए कहते हैं।
“कुछ नहीं, मैं कल उन सबसे बात करके रहूंगी। नौ-दस बजे तक ठीक है। उसके बाद….” रश्मि की बातें पूरी भी नहीं हो पाती है कि उनके कानों में सिन्हा साहब के ख़र्राटे की आवाज़ आने लगती है।
रश्मि बच्चों के युनिफोर्म पर आयरन चलाते हुए कहती हैं, “बिस्तर पर आते नहीं हैं कि खर्राटा लेना शुरू कर देते हैं। यहां एक भी ढंग की काम वाली नहीं मिलती है। सारा काम ख़ुद ही करना पड़ता है। सुबह से लेकर रात तक सबकी ख़िदमत में लगी रहो। सुबह उठो नाश्ता बनाओ। बच्चों को टिफ़िन देकर स्कूल भेजो। इन्हें लंच के साथ ऒफ़िस विदा करो। उसके बाद घर का काम करो। बच्चे स्कूल से वापस आ जाएं तो उन्हें खाना खिलाओ। रात में जब ये बैंक से आयें तब इनके चाय-नाश्ते की व्यवस्था करो। मैं इन्हें अपना दुखड़ा क्या सुनाऊंगी, उल्टे ये अपनी राम कहानी शुरू कर देते हैं। सोचती हूं इनकी कहानी सुनने के बाद अपनी कथा सुनाऊं। पर ऐसा नहीं हो पाता है। उसके बाद ये टीवी देखने में लग जाते हैं। दो-तीन घंटे तक टीवी स्क्रीन पर आंख गड़ाते हुए खाना भी खा लेते हैं। उसके बाद उनकी नज़र बेड की तरफ़ मुड़ जाती है। लिविंग हॉल से निकलकर वे बेड रूम में पहुंच जाते हैं। ख़ुद तो ख़र्राटे लेकर सो रहे हैं। और, मुझे सोने के समय में आयरन ….”
“.... आयरन करना पड़ रहा है।” सिन्हा साहब मुस्कुराते हुए कहते हैं।
“आप सो नहीं रहे थे। मेरी बातें सुन रहे थे।” रश्मि मुंह बनाते हुए कहती हैं।
“सो ही रहा था कि सपने में तुम बेलन लेकर आ गयी।” सिन्हा साहब फिर से मुस्कुराते हुए कहते हैं।
“एक दिन सही में मैं बेलन लेकर आ जाउंगी। वो भी सपने में नहीं, बल्कि हक़ीक़त में।” कहकर रश्मि हंस पड़ती हैं।
अगले दिन शाम चार बजे सिन्हा साहब घर पहुंच जाते हैं।
इस समय उन्हें देखकर रश्मि आश्चर्यचकित होकर पूछती है, “क्या बात है,आज बहुत जल्दी आ गयें ?”
सिन्हा साहब मुस्कुराते हुए कहते हैं, “घूमने चला जाये या पिक्चर चला जाये ?
पियूष और आशी एक साथ चिल्लाते हुए कहते हैं, “पापा पिक्चर देखने चलिए।”
“तुम क्या बोलती हो?” सिन्हा साहब प्यार भरी नज़रों से रश्मि की तरफ़ देखते हुए पूछते हैं।
“पिक्चर ही चलिए।” रश्मि मुस्कुराकर कहती हैं।
सिन्हा साहब, “मुझे पता था इसलिए मैंने पहले ही पिक्चर का टिकट कटा लिया था।”
“मेरे ग्रेट पापा।” आशी सिन्हा साहब की बांह पकड़ते हुए कहती है। थोड़ी देर में सिन्हा साहब की टोली गाड़ी से सिनेमा हॉल की तरफ़ चल पड़ती है। हॉल में इंटरवल के दरम्यान पॉपकॉर्न और कोल्ड ड्रिंक भी चलता है। पिक्चर देखने के बाद ये प्रोग्राम बनता है कि किसी रेस्टूरेंट में डिनर करने के बाद घर चला जाये। सिन्हा साहब आज रश्मि की हर शिकायत दूर करने चाहते हैं। रेस्टूरेंट चलने का प्रोपोज़ल भी उन्हीं की तरफ़ से आया है। रेस्टूरेंट में पहुंचने पर वे कहते हैं कि जिसको जो खाना है वो खाये। उस पर उनकी कोई पाबंदी नहीं है। अपनी-अपनी पसंद का खाना खाने के बाद वे लोग घर पहुंच जाते हैं। गाड़ी पार्क करने के बाद वे जब ऊपर जाने के लिए सीढ़ी की तरफ़ बढ़ते हैं। वैसे ही निचले फ्लोर का दरवाज़ा खुलता है। एक लड़की अंदर से बाहर आती है।
वह पूछती है, “आंटी, आप लोग कहीं बाहर गए थे?”
रश्मि कहती है, “पिक्चर देखने गए थे। तुम क्या कर रही हो?”
पियूष सिन्हा साहब से चाबी लेकर सीढ़ियां चढ़ने लगता है। आशी उसके पीछे हो लेती है।
वह लड़की कहती है, “पढाई कर रहे हैं।”
बाकी तीन लड़कियां भी बाहर निकल आती है।
उन्हें देखकर रश्मि पूछती है, “तुम सब यहां हो! मैं तो सोची कि तुम सब.....”
“..... रश्मि ऊपर चलो।” सिन्हा साहब उसे टोकते हुए कहते हैं।
“रोमा, तुम में से मुझे सिर्फ़ तुम्हारा नाम ही पता है।” रश्मि उन सबकी तरफ़ देखते हुए कहती है।
रोमा बारी-बारी से सबका नाम बताते हुए कहती है, “ये पल्ल्वी है, ये चित्रा है और ये दीपा है। हम सभी मेडिकल की तैयारी कर रहे हैं।”
रोमा पूछती है, “कौन-सी पिक्चर देखने गयी थीं?”
“चेन्नई एक्सप्रेस।” कहती हुई रश्मि आगे बढ़ जाती है।
दो सीढ़ियां चढ़ने के बाद वह एकाएक रुक जाती है।
उनके पीछे चल रहे सिन्हा साहब पूछते हैं, “क्या हुआ?”
रश्मि, “अगले संडे आशी का जन्मदिन है। इन सबको भी इनवाइट कर दें?”
सिन्हा साहब, “कर दो।”
“रोमा” रश्मि सीढ़ी से नीचे उतरकर आवाज़ देती है।
“क्या हुआ आंटी?” रोमा अंदर से आवाज़ देते हुए दरवाज़ा खोलकर बाहर आ जाती है।
रश्मि, “अगले संडे को आशी का जन्मदिन है। तुम सब शाम में ऊपर आ जाना।”
रोमा, “ठीक है आंटी। गुड नाइट आंटी।”
रश्मि, “गुड नाइट, रोमा।”
सिन्हा साहब सोफ़े पर बैठते हुए कहते हैं, “अच्छा है दो दिन बैकं बंद है। दो दिन अब जमकर आराम करेंगे।” फिर वे रश्मि की तरफ़ देखकर कहते हैं, “एक कप चाय पिला दो।”
रश्मि, “जब तक चाय बनती है तब तक आप कपड़े चेंज कर लीजिये।”
“ठीक है।” कहकर सिन्हा साहब सोफ़े पर से उठ जाते हैं।
“मां, मैं सोने जा रही हूं।” आशी अपने कमरे में जाते हुए कहती है।
रश्मि, “ठीक है बेटा, गुड नाइट।”
आशी, “गुड नाइट, मां।”
रश्मि फ़्रेश होकर किचन में पहुंच जाती है। किचन में पहुंचते ही हर रात की तरह छत पर से छमछम की आवाज़ आने लगती है।
वह किचन में चाय बनाते हुए कहती है, “शुरू हो गया सबका छमछम। ये सब पढ़ने आयी है या डांस करने आयी है!”
सिन्हा साहब फ़्रेश होकर वापस लिविंग रूम में आते हैं तो वे पियूष को मोबाइल के साथ बिज़ी देखते हैं।
वे उसे डांटते हुए कहते हैं, “पियूष बंद करो मोबाइल। सोने जाओ।”
पीयूष, “जा रहा हूं पापा।”
सिन्हा साहब तल्ख़ लब्ज़ों में कहते हैं, “पहले मोबाइल बंद करो।”
पियूष, “लो कर दिया बंद।”
सिन्हा साहब, “जाओ… अब सोने जाओ।”
पियूष मोबाइल छोड़कर कमरे में चला जाता है।
रश्मि एक ट्रे में दो कप चाय लेकर आती है। और, उसे मेज़ पर रख देती है। सिन्हा साहब चाय की एक प्याली उठा लेते हैं।
“इन सबों को मना करना होगा अब।” रश्मि चाय की प्याली उठाते हुए कहती है।
“मना कर देना। पहले चाय पी लो।” कहकर चाय की चुस्की लेते सिन्हा साहब मुस्कुरा देते हैं।
दो दिन बाद रोमा अपनी सहेलियों के साथ रश्मि के पास आती है।
वह रश्मि से कहती है, “आंटी, हम लोग आज जा रहे हैं।”
रश्मि, “कहां जा रही हो?”
रोमा, “दूसरी जगह जा रहे हैं।”
रश्मि, “दूसरी जगह! मतलब?”
रोमा, “हम लोग यह घर छोड़कर जा रहे हैं।”
रश्मि, “क्यों?”
रोमा अपनी सहेलियों की तरफ़ देखते हुए कहती है, “यहां डर लगता है।”
“डर…. कैसा डर?” रश्मि अपनी बड़ी-बड़ी आंखों को और बड़ी करते हुए पूछती है।
रोमा, “पता नहीं…. पर एक डर सा लगता है।”
“तुम लोगों को डर कैसे लग सकता है! तुम लोग तो बारह बजे रात में भी छत पर जाकर डांस करती हो!” रश्मि हैरत भरी निगाहों से उन्हें देखते हुए कहती है।
चित्रा, “बारह बजे रात में डांस और वो भी छत पर! आंटी, रात की बात तो दूर हम में से कोई भी आज तक दिन में भी छत पर नहीं गया है।”
रश्मि, “रात में तुम लोग छत पर नहीं जाती थी ?”
सब लड़कियां एक साथ कह उठती है, “नहीं”
रश्मि, “तुम लोग मज़ाक कर रही हो ?”
रोमा हंसते हुए कहती है, “आंटी, हम लोग मज़ाक क्यों करेंगे ?”
रश्मि समझ जाती है कि ये सब ढीठ है। वह बातों को तूल नहीं देती है।
“ठीक है। हो सकता वह मेरा वहम हो। तुम लोग जहां भी रहो अच्छे से रहो। और, बढियां से पढ़ो लिखो।” रश्मि उन सभी को समझाते हुए कहती है।
सभी लड़कियां बारी-बारी से रश्मि का चरण स्पर्श करके चली जाती है। रात में बैंक से जब सिन्हा साहब घर आते हैं तब रश्मि उन्हें बता देती है कि आफ़त सब आज यहां से चली गयी।
ये सुनकर सिन्हा साहब मुस्कुराकर कहते हैं, “तब तो आज पार्टी होनी चाहिए।”
रश्मि उनकी तरफ़ चाय की प्याली बढ़ाते हुए कहती है, “लड़की थी सब आफ़त थी।”
सिन्हा साहब चाय की चुस्की लेते हुए कहते हैं, “रात गयी बात गयी।”
रात के ११ बजते ही फिर से वही छमछम की आवाज़ शरू हो जाती है। रश्मि सिन्हा साहब का चेहरा देखती है तो सिन्हा साहब रश्मि का चेहरा देखते हैं।