Rajiv Ranjan Sinha

Horror

4.7  

Rajiv Ranjan Sinha

Horror

हवेली

हवेली

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रात का वक़्त है। ज़ोरों की बारिश हो रही है। सांय सांय की आवाज़ करती तेज़ हवाएं पेड़ को झुकाने के लिए बेताब दिख रही है। बीच -बीच में कड़कती बिजलियां बरसात को और भयावह बना रही है। इस भरी बरसात में शहर की बिजली गुल हो चुकी है। ईंट के बने कंपाउंड के बीचो बीच घर का डोर बेल बज उठता है। डोर बेल जब तीसरी बार बजता है तब बिस्तर पर सो रहे एक शख़्स की नींद खुल जाती है। 

वह बिस्तर पर से उठते हुए आवाज़ देता है, “देवी लाल …. देवी लाल।” 

“जी..... जी मालिक!” पास के बरामदे में सो रहा देवी लाल हड़बड़ा कर उठते हुए कहता है। 

मालिक, “देखो कौन है बाहर?” 

देवी लाल बरामदे में रखे लालटेन को उठाकर दरवाज़े की तरफ़ चल पड़ता है। 

दरवाज़े के पास पहुंचकर वह पूछता है, “कौन है?”

बाहर से आवाज़ आती है, “डॉक्टर साहब हैं?”

देवी लाल दरवाज़ा खोल देता है। दरवाज़े पर उसे रेनकोट में एक शख़्स दिखलायी पड़ता है। वह उससे पूछता है, “क्या बात है?”

वह शख़्स कहता है, “मुझे डॉक्टर साहब से मिलना है।”

देवी लाल, “इस..... .”

“..... कौन है देवी लाल?” उसकी बातें पूरी भी नहीं होती है कि डॉक्टर साहब की आवाज़ आती है।

देवी लाल शख़्स से कहता है, “आप यहीं ठहरिये, मैं मालिक से बात करता हूं।”देवी लाल डॉक्टर साहब के पास पहुंचकर कहता है, “मालिक कोई आदमी आये हैं। कह रहे हैं आपसे मिलना चाहते हैं।”

“इस वक़्त” कहकर डॉक्टर साहब कमरे से निकल पड़ते हैं। 

दरवाज़े पर पहुंचकर वे शख़्स से पूछते हैं, “क्या बात है?”

“नमस्ते डॉक्टर साहब। मेरी मां बहुत बीमार है। एक बार उसे देख लेते तो अच्छा रहता।” वह शख़्स हाथ जोड़कर कहता है। 

“इतनी रात में और बारिश भी हो रही है। ऐसे में......” डॉक्टर साहब कहते-कहते रुक जाते हैं। फिर वे कहते हैं, “ठीक है, चलता हूं।”

वे कमरे में चले जाते हैं। रेनकोट पहनकर मेज़ पर रखे एक छोट से बॉक्स उठाकर दरवाज़े के पास आ जाते हैं। तभी दीवार पर टंगी घड़ी दस बार टन-टन करके बंद हो जाती है। वे शख़्स से पूछते हैं, “तुम कैसे आये हो?”

“जी मैं पैदल आया हूं।” शख़्स उनसे बॉक्स लेते हुए कहता है। 

वे देवी लाल से गाड़ी की चाबी लाने को कहते हैं। देवी लाल चाबी लाकर उन्हें दे देता है। चाबी लेकर डॉक्टर साहब गाड़ी के समीप चले आते हैं। गाड़ी के ड्राइविंग सीट पर बैठकर वे दूसरी तरफ़ का दरवाज़ा खोल देते हैं। वह शख़्स उनकी बगल वाली सीट पर बैठ जाता है। गाड़ी स्टार्ट करके डॉक्टर साहब उससे रास्ता बताते रहने को कहते हैं। शख्स उन्हें रास्ता बताते जाता है। कुछ दूर जाने पर डॉक्टर साहब पूछते हैं, “कहां रहते हो तुम?”

शख़्स, “पास में ही गांव है करजान।”

“अच्छा तुम करजान में रहते हो! करजान तो मेरे घर से पांच किलोमीटर होगा। तुम पहुंचे कैसे? इस बरसात में कोई सवारी मिली थी?” डॉक्टर साहब हैरत भरी निगाहों से उसकी तरफ़ देखकर कहते हैं। 

“नहीं डॉक्टर साहब, सवारी कहां मिली। इसीलिए तो मैं आपके पास पैदल पहुंचा।” शख्स आगे की तरफ़ देखते हुए कहता है। 

डॉक्टर साहब, “तुम्हारी मां को क्या हुआ है?”

“दो दिनों से उसे बुख़ार है। पास के एक दवाखाने से मैंने हाल बताकर उसे दवाएं दी। पर उससे उसे लाभ नहीं मिल पा रहा है। थोड़ी देर के लिए बुख़ार उतर जाता है। फिर चढ़ जाता है। बारिश भी दो दिनों से हो रही है। इस बारिश में उसे कहीं दिखाने कैसे ले जाता। गाड़ी तो है लेकिन, कुछ दिनों से वह भी ख़राब पड़ी है। इस बारिश में कोई मैकेनिक भी आने को तैयार नहीं है। आज मैं दोपहर में ही शहर आ गया था। इस उम्मीद से कि कोई डॉक्टर मेरे साथ मेरे घर चल पड़ेंगे। पर हर किसी ने बारिश का बहाना बनाकर इंकार कर दिया। फिर किसी ने आपके बारे में बताया तो मैं आपके पास बड़ी उम्मीद लेकर आ गया। आपने मुझे निराश नहीं किया।” फिर वह एक हवेली दिखाते हुए कहता है, “इसके अंदर।”डॉक्टर साहब गाड़ी को कैंपस के अंदर घुसा देते हैं। 

शख़्स गाड़ी से बाहर निकलकर कहता है, “आइये।”

वह डॉक्टर साहब को हवेली के अंदर लेकर चला जाता है। हवेली के एक कमरे में उन्हें बिस्तर पर लेटी एक बूढ़ी औरत दिखती है। 

शख़्स कहता है, “ये मेरी मां है।”

डॉक्टर साहब बॉक्स से आला निकालकर उनकी नब्ज़ की जांच करते हैं। उनके मुंह में थर्मामीटर लगाकर टेम्प्रेचर देखते हैं। 

“इन्हें टायफाइड है। तीन दिनों तक इन्हें एक समय इंजेक्शन देना होगा। जिसके बाद बुखार उतर जाएगा। इसके साथ सात दिनों तक एक एंटीबायोटिक दवा दिन में दो बार चलेगा।” कहकर वे एक पुर्ज़ा पर दवाई लिख देते हैं। फिर वे कहते हैं, “इस वक़्त तुम्हें दवा कहां मिलेगी? एक काम करो गाड़ी की पिछली सीट एक डब्बा होगा। उसे लेकर आओ।”

शख़्स थोड़ी देर में डब्बा लेकर आ जाता है। डॉक्टर साहब डब्बे से इंजेक्शन और सिरिंज निकालकर उन्हें इंजेक्शन दे देते हैं। वे शख़्स को कुछ गोली और इंजेक्शन देते हुए कहते हैं, “इसे रख लो। गोली दिन में दो बार देना और इंजेक्शन मैं ख़ुद आकर दे जाऊंगा।”

शख़्स, “आप कल कब आएंगे?”

“इंजेक्शन २४ घंटे में एक बार पड़ना है। इस लिहाज़ से मैं कल रात नौ बजे आऊंगा।” कहकर डॉक्टर साहब यहां से निकल जाते हैं। दीवार पर टंगी घडी नौ बार टन-टन की आवाज़ करके शांत हो जाती है। उसके शांत होते ही टेलीफोन की घंटी घनघना उठती है। डॉक्टर साहब टेलीफोन का रिसीवर उठाकर कहते हैं, “हेलो।” 

दूसरी तरफ़ से शख़्स की आवाज़ आती है, “डॉक्टर साहब, आप अभी तक आये क्यों नहीं है?”

डॉक्टर साहब थोड़ी आश्चर्य करते हुए पूछते हैं, “कहां?”

शख़्स, “जहां आप कल रात में आये थे, हवेली में।”

“ओह! मैं तो भूल ही गया था। अभी आ रहा हूं।” कहकर डॉक्टर साहब रिसीवर क्रेडिल पर रख देते हैं। तीसरे दिन इंजेक्शन देने के बाद वे शख़्स से कहते हैं, “बुखार अब उतर चुका है। अब इन्हें इंजेक्शन की ज़रूरत नहीं है। दवा देते रहना। चार दिन के बाद मैं इन्हें देख जाऊंगा।”

शख़्स, “डॉक्टर साहब, आपकी फ़ीस और दवाई के पैसे कितने हुए?”

“उसकी चिंता तुम मत करो। मैं ले लूंगा।” कहकर डॉक्टर साहब हवेली से निकल जाते हैं। 

चार दिन बाद डॉक्टर साहब मीठापुर गांव पहुंचते हैं। वे सप्ताह के अंत में शहर के किसी एक गांव में जाकर मरीज़ों का मुफ़्त में इलाज़ किया करते हैं। गांव से लौटते वक़्त उन्हें याद आता है कि करजान में उस बूढ़ी औरत को देखना है। इस वक़्त शाम के चार बजे हैं। वे सोचते हैं कि करजान तो रास्ते में ही है। क्यों न इसी समय उसे देख लिया जाये। देखना ही तो है। अब तक तो वो ठीक भी हो गयी होगी। वे ड्राइवर से करजान चलने को कहते हैं। ड्राइवर गाड़ी को करजान की तरफ़ मोड़ देता है। हवेली के पास पहुंचकर वे ड्राइवर से गाड़ी रोकने का इशारा करते हैं। वे गाड़ी से उतरकर हवेली के कंपाउंड में घुस जाते हैं। वे दरवाज़े के पास पहुंचकर दरवाज़े की सीकरी से दरवाज़े को पीटते हैं। लेकिन, न तो दरवाज़ा खुलता है और न ही अंदर से किसी की आवाज़ आती है। फिर उनकी नज़र दरवाज़े के नीचे लगे ताले पर पड़ती है। ताला देखकर वे मन ही मन कहते हैं ‘ये लोग कहां चले गए?’ 

“क्या बात है बाबूजी?” आवाज़ सुनकर डॉक्टर साहब पीछे की तरफ़ देखते हैं। 

एक बूढ़ा आदमी उनकी तरफ़ एक टक से देखे जा रहा है। 

डॉक्टर साहब, “ये ताला क्यों बंद है? ये लोग कहीं गये हैं?”

बूढा आदमी, “कौन लोग?”

डॉक्टर साहब, “वही लोग जो इस हवेली में रहते हैं, मां-बेटे।”

बूढ़ा आदमी, “कौन मां-बेटे?”

डॉक्टर साहब, “वही मां जो कुछ दिन पहले बीमार थी। जिसका इलाज़ मैं कर रहा था।”

बूढ़ा आदमी, “ये कब की बात है?”

डॉक्टर साहब, “तीन-चार दिन पहले की। आप कौन हैं?”

बूढ़ा आदमी, “मैं इस हवेली की देखरेख करता हूं। मेरा नाम बंसी है।”

डॉक्टर साहब, “तब तो तुम्हें सब पता ही होगा।”

“आइये” कहकर बंसी चाबी से ताले को खोल देता है। 

दरवाज़ा खोलकर वह अंदर चला जाता है। उसके पीछे-पीछे डॉक्टर साहब भी चले जाते हैं। डॉक्टर साहब देखते हैं कि हवेली के अंदर जहां तहां मकड़े का जाला है। वे एक कमरे की तरफ़ इशारा करते हुए कहते हैं, “उस कमरे में ले चलो।”बंसी उस कमरे का दरवाज़ा खोल देता है। कमरे के अंदर थोड़ा अंधेरा दिखता है। वे बंसी को लाइट जलाने को कहते हैं। 

“यहां लाइट है कहां? लाइन को कटे बरस बीत गये। बल्ब तो हैं पर जलते कहां हैं?” कहते हुए बंसी खिड़की खोल देता है। बाहर से आती रोशनी में बिस्तर दिख जाता है। जिस पर बीमार बूढ़ी औरत पड़ी रहती थी। वे कहते हैं, “इसी बिस्तर पर तो वे लेटी रहती थी। कमरे में बल्ब भी जला करता था।”

“चलिए बाबूजी, बाहर चलते हैं।” कहते हुए बंसी खिड़की का पल्ला लगा देता है। सीढ़ी से नीचे उतरते वक़्त डॉक्टर साहब की नज़र दीवार पर टंगी कुछ तस्वीरों पर चली जाती है। दो तस्वीरों को बारी-बारी से दिखाते हुए वे कहते हैं, “यही दोनों तो थे।”

बंसी तस्वीर की तरफ़ देखते हुए कहता है, “ये मालकिन हैं। जमींदार साहब की पत्नी। और, दूसरा प्रताप का फोटो है, मालिक के इकलौते पुत्र। अब कोई भी इस दुनिया में नहीं हैं।”

हवेली से बाहर निकलते हुए वे मन ही मन कहते हैं ‘ये कैसे हो सकता है?’ वे गाड़ी में बैठकर ड्राइवर से घर चलने को कहते हैं। रात के नौ बजे घड़ी नौ बार टन-टन की आवाज़ करके शांत हो जाती है। उसके शांत होते ही टेलीफोन की घंटी बज उठती है। 

रिसीवर उठाकर डॉक्टर साहब कहते हैं, “हेलो।”

दूसरी तरफ़ से आवाज़ आती है, “डॉक्टर साहब, आप अभी तक आये क्यों नहीं?”

डॉक्टर साहब, “कौन बोल रहा है?”

दूसरी तरफ़ से आवाज़ आती है, “हम जानते हैं कि अब आप यहां नहीं आएंगे। आपकी फीस आपकी गाड़ी की सीट पर रखी है। डॉक्टर साहब, आज से पांच साल पहले मेरी मेरी मां की मौत टाइफाइड से हो गयी थी। हमें तेज़ बुखार था। तीन दिनों से हम लोग बुखार से तप रहे थे। उतने ही दिनों से जोरों की बारिश भी हो रही थी। हमारे फेमली डॉक्टर देश से बाहर गए हुए थे। मैंने न जाने टेलीफोन से कितने डॉक्टर को कॉन्टेक्ट किया। पर सबने बारिश का हवाला देकर घर आने से मना कर दिया। घर में गाड़ी तो थी पर वह भी स्टार्ट नहीं हो पायी। और, उसी रात हम दोनों की मौत हो गयी। उस समय अगर मैंने आपको फोन किया होता तो हम सब बच गए होते।”

इतने के बाद कॉल डिस्कनेक्ट हो जाता है। डॉक्टर साहब गाड़ी का दरवाज़ा खोलते हैं तो उन्हें सीट पर एक लिफ़ाफ़ा दिखता है। 


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