Rajiv Ranjan Sinha

Horror Thriller

3.8  

Rajiv Ranjan Sinha

Horror Thriller

नंबर १४

नंबर १४

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“बेटा, हॉस्पिटल से मुझे ले चलो। बहुत हल्ला होता है यहां। रात में मैं ठीक से सो भी नहीं पाता हूं। कल आधी रात में मेरी नींद किसी के रोने की आवाज़ से टूट गयी। इधर-उधर नज़र दौड़ाया तो दो बेड बाद किसी की मौत हो गयी थी। उसके बाद मुझे नींद ही नहीं आयी। रात भर जागता रहा। कभी उस मरीज़ को देखता रहा तो कभी इस मरीज़ को। डॉक्टर साहब से कहकर मुझे यहां से ले चलो।”  मिश्रा जी अपने बेटे अशोक से कहते हैं। 

अशोक उन्हें समझाते हुए कहते हैं, “आपकी तबीयत अभी पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है। आप धीरे-धीरे अच्छे हो रहे हैं। जब आप अच्छी तरह ठीक हो जायेंगे तब आपको यहां से ले चलेंगे। डॉक्टर साहब कह रहे थे कि आपकी तबीयत में इसी तरह से सुधार होता रहा तो आपको जल्दी ही हॉस्पिटल से छुट्टी मिल जाएगी।”

मिश्रा जी रिटायर्ड प्रोफ़ेसर हैं। दो दिन पहले ही अचानक से वे घर में बेहोश होकर गिर पड़े थे। आदित्य ने अशोक को टेलीफ़ोन से बताया था। अशोक उस वक़्त अपने ऑफ़िस में थे।   

“अंकल आप कहां हैं? दादा जी की तबीयत फिर से ख़राब हो गयी है। वे बेहोश हो गए हैं।” आदित्य टेलीफ़ोन से अशोक मिश्रा को बताता है। 

अशोक कहते हैं, “कैसे बेहोश हो गये?”

आदित्य, “ पता नहीं अंकल। अभी वे वॉश रूम से आकर बिस्तर के समीप पहुंचे ही थे कि लड़खड़ाकर गिरने लगे। लड़खड़ाकर गिरते हुए देख कर मैंने उन्हें पकड़ लिया। उन्हें बिस्तर पर लेटा दिया है। आप जल्दी आ जाइये।”

अशोक, “बेटा, मैं पांच मिनट में आ रहा हूं।”

अशोक एक निजी इंश्योरेंस कंपनी में एक कनीय अधिकारी हैं। सालमारी में अशोक अपने पिता मिश्रा जी के साथ रहा करते हैं। अशोक की मां का निधन हुए चार साल हो चुका है। मिश्रा जी की तबीयत इधर कुछ दिनों से ख़राब चल रही थी। डॉक्टर से दिखाकर घर पर ही उनका इलाज़ किया जा रहा था। लेकिन,आज उनके बेहोश होने से अशोक परेशान हो गए हैं। 

ऑफ़िस से गाड़ी स्टार्ट करते हुए वे मन ही मन कहते हैं, “अभी थोड़ी ही देर पहले तो उन्हें नाश्ते कराने के बाद दवा खिलाकर आया था। तबीयत में सुधार भी दिख रहा था। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि वे बेहोश हो गयें।”

घर से ऑफिस की दूरी गाड़ी से महज़ पांच मिनट की है। घर के कंपाउंड में गाड़ी खड़ी करके वे दौड़ते हुए मिश्रा जी के कमरे में चले जाते हैं। बिस्तर पर मिश्रा जी लेटे हुए हैं। और, आदित्य उनके सिर को सहलाये जा रहा है। 

“क्या हुआ पिताजी?” अशोक उनके दायें हाथ की हथेली को अपने दोनों हाथों से पकड़ते हुए पूछते हैं। 

“थो…. ड़ा .. चक्क …र।” कहते हुए वे फिर से बेहोश हो जाते हैं। 

अशोक उन्हें अपने हाथों में उठाते हुए आदित्य से कहते हैं, “तुम गाड़ी को दरवाज़ा खोलो। चाभी मेरे पैंट के पॉकेट से निकाल लो।”

आदित्य अशोक के पैंट से चाभी निकालकर गाड़ी की तरफ़ भागता है। वह पिछली सीट का दरवाज़ा खोल देता है। अशोक मिश्रा जी को उसमें लेटा देते हैं। 

वे आदित्य से कहते हैं, “तुम यहीं ठहरो। मैं पिताजी को लेकर हॉस्पिटल जा रहा हूं।”

आदित्य अशोक के यहां रेंटर है। वह यहां इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा रहा है। उसने एक कोचिंग भी ज्वाइन कर रखा है। सप्ताह में चार दिन ही क्लास होता है। आज तो संजोग अच्छा था कि उसका क्लास नहीं था। और, वह मिश्रा जी से मिलने आ गया था। अशोक गाड़ी को एक सरकारी अस्पताल के गेट के पास रोक देते हैं। अस्पताल पहुंचते-पहुंचते पिताजी को थोड़ा-थोड़ा होश आने लगता है। गाड़ी से उतरकर अशोक अंदर की तरफ़ दौड़ते हैं। वापस जब वे गाड़ी के पास आते हैं तब उनके साथ दो हेल्थ वर्कर भी होते हैं, जो एक स्ट्रेचर लिए हुए हैं। वे दोनों मिश्रा जी को सीट से उठाकर स्ट्रेचर पर लेटा देते हैं। रिसेप्शन पर नाम और पता लिखने के बाद उन्हें एक कमरे में भेज दिया जाता है। जहां पर कुछ मशीनें लगी हुई हैं। 

एक डॉक्टर उनका स्वास्थ्य जांच करने के बाद कहते हैं, “इनका बीपी लो है। और, बॉडी में सोडियम की कमी है। इन्हें हॉस्पिटल में एडमिट करना होगा।”

अशोक कहते हैं, “ठीक है डॉक्टर साहब इन्हें एडमिट कर लीजिये।”

हॉस्पिटल की एडमिशन फॉर्मेलिटी पूरी किये जाने के बाद उन्हें एडमिट कर लिया जाता है। मिश्रा जी को एक वार्ड में शिफ़्ट कर दिया जाता है। हॉस्पिटल से ही उन्हें खाना और दवाई दी जाती है। अशोक सुबह शाम उन्हें देखने आ जाया करते हैं। दो-तीन दिनों के बाद उनकी तबीयत में सुधार होने लगता है। हॉस्पिटल के दृश्य को देखकर वे परेशान होने लगे हैं। इसलिए आज वे घर जाने की ज़िद्द कर रहे हैं। जब वे देखते हैं कि अशोक उनकी बात नहीं मान रहा है तब वे बच्चे की तरह रूठ जाते हैं।

अशोक परिस्थितियों को समझते हुए उनसे कहते हैं, “ठीक है मैं कल डॉक्टर साहब से बात करता हूं। अब मैं घर जा रहा हूं। आप ठीक से रहियेगा। सिस्टर कह रही थी कि कल आप दवा नहीं खाना चाह रहे थे।”

मिश्रा जी मुंह बनाते हुए कहते हैं, “एक दवा बहुत कड़वी है। उसे पीते ही लगता है जैसे उल्टी हो जायेगा।”

“दो-चार दिन ही तो दवा खाना है। बर्दाश्त करके खा लिया कीजिये।” उन्हें समझाकर अशोक खड़े हो जाते हैं। 

“कल सुबह में ही डॉक्टर साहब से बात कर लेना।” मिश्रा जी आशा भरी निगाहों से अशोक की तरफ़ देखते हुए कहते हैं। 

“जी जरूर।” कहकर वे वार्ड से बाहर निकल जाते हैं।

एक सप्ताह बाद मिश्रा जी पूरी तरह स्वस्थ हो जाते हैं। एक दिन डॉक्टर साहब उनसे वो बात कह देते हैं जिनका उन्हें बेसब्री से इंतज़ार था। मिश्रा जी को अगले ही दिन हॉस्पिटल से छुट्टी मिल जाती है। रिसेप्शन पर पहुंचने की बाद उन्हें अचानक से याद आता है कि वे तकिये के नीचे उपन्यास छोड़कर आ गए हैं। 

“बेटा, अभी आया।” कहकर मिश्रा जी वार्ड की तरफ़ चले जाते हैं। 

बेड नंबर पांच के पास आकर वे तकिये को उठाते हैं। तकिये के नीचे रखे उपन्यास को लेने के बाद जब उनकी नज़र इधर-उधर जाती है तब वे चौंक पड़ते हैं। वार्ड में उन्हें एक भी मरीज़ नहीं दिखता है। सारा बेड खाली है। किसी भी बेड पर एक भी मरीज़ नहीं हैं। 

“सारे मरीज़ कहां चले गयें? पल भर पहले ही तो मरीज़ों से भरे इस वार्ड से मैं निकला था। पल भर में ही अचानक से ये खाली कैसे हो गया?” मन ही मन में कहते हुए वे बेड से वार्ड के दरवाज़े की तरफ़ चल पड़ते हैं। दरवाज़े के समीप पहुंचने पर उनकी नज़र दरवाज़े के एक पल्ले पर लिखे ‘बेड नंबर १ से १५’ पर चली जाती है। वे वहां ठहरकर पीछे की तरफ़ देखते हैं तो सारे बेड पर मरीज़ लेटे दिखलाई देते हैं। जो उनकी तरफ़ देखकर मुस्कुरा रहे हैं। ये देखकर वे फिर से बेहोश हो जाते हैं।



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