आत्मचिंतन
आत्मचिंतन
"क्या माँ, आपको पता है ना इस साल मेरी दसवीं बोर्ड परीक्षा है। सिर्फ दो महीने बचे हैं, प्लीज मुझे मत बोला करो काम का, बहुत परेशान करती हो आप।" स्वाति झल्लाई।
शोभा जी कुछ नहीं बोलीं। दो दिन से बुखार में पड़ी थीं। आज महरी भी नहीं आई थी सो पूरा घर उलट पलट हो रहा था। हिम्मत करके उठीं और चाय बनाई, एक कप बेटी को दी और एक स्वयं पीने लगी।
तभी डोरबेल बजी, देखा तो भतीजी दिव्या हाथ मे स्टील का डिब्बा लिए खड़ी थी, देखते ही शोभा जी से लिपट गई, "बुआ, देखो आपके लिए माँ ने क्या भेजा है। अरे, आपको तो बहुत तेज बुखार है, स्वाति ! तुमने बताया नहीं कि बुआ बीमार हैं।"
दिव्या उखड़ गई। स्वाति कुछ ना बोली। तुरंत माँ को खबर कर दिव्या, शोभा जी को दवाखाना ले गई और शोभा जी को दवाई दिलवा कर घर लौट गई। ये कहते हुए कि बुआ खाना बाहर से आर्डर मत करना, पापा को भेजती हूँ खाना लेकर।
भाई-भाभी समय से खाना ले आये। शोभा जी ने पूछा दिव्या नहीं आई भाई साहब ? भाई साहब बोले नहीं जीजी। इस बार बारहवीं बोर्ड है ना सो पढ़ रही है, मैंने सोचा हम भी आप से मिल लेंगे और खाना भी पहुँचा देंगे। शोभा जी जैसे भूल ही गईं थीं कि दिव्या की भी तो बोर्ड परीक्षा है पर वह कितनी सामान्य है। और स्वाति कितनी उग्र, वे आत्मचिन्तन करने लगीं कि स्वाति की परवरिश में उनसे कहाँ चूक हो रही है।
