सुबह की सैर
सुबह की सैर
पत्नी और बेटी के हाथ में चार-पाँच सामान से भरे थैले देख कर फिर देव का मूड खराब हो गया। बेवजह ये दोनों क्या ख़रीद लाती हैं...भला शॉपिंग करना भी कोई शौक है...मॉल घूमने के बहाने ना जाने क्या-क्या बिना आवश्यकता ही खरीदने लगी हैं...यही सोचते सोचते वह फिर अख़बार पढ़ने लगा।मध्यमवर्गीय परिवार में पले बढ़े देव को संस्कार विरासत में ही मिले थे, स्वानुशासन ही उसकी सफलता का राज है। शहर के शासकीय महाविद्यालय में हिंदी के वरिष्ठ प्राध्यापक पद पर आसीन देव अपने उसूलों का पक्का है, जितना हो सके अपने काम उसे स्वयं ही करना पसंद है। रविवार को सब्जी मंडी जाना...अपने कपड़े स्वयं धोना... बगीचे की देखभाल करना...रात में ही अपने जूते पॉलिश करना आदि, उसके नियत कार्यों में शुमार हैं। घर में कोई आर्थिक तंगी नहीं है पर मितव्ययी देव अपने एक-एक पैसे का हिसाब रखता है। उसके विचार तो आधुनिक हैं पर आधुनिकता की दौड़ में वह पैसे की बर्बादी उचित नहीं समझता।
कई बार अपने उसूलों को लेकर वह साथियों और रिश्तेदारों से उलझ भी लेता दिखावे की दुनिया से बहुत दूर...देव की दिनचर्या में सुबह की सैर भी शामिल है। रोजाना करीब चार पांच किलोमीटर पैदल चलता है वह। परन्तु आज तक देव के पड़ोसी नहीं समझ पाए कि वह प्रत्येक रविवार की सुबह अपने स्कूटर से क्यों जाता है सैर पर। आज भी प्रत्येक रविवार की तरह उसने अपना स्कूटर निकाला और चल पड़ा...कोई तीन किलोमीटर दूर एक छोटी सी दुकान पर वह रुका...दूध और बिस्कुट के लगभग बीस-तीस छोटे-छोटे पैकेट स्कूटर की डिक्की में भर कर वह शहर के किनारे बसी झोपड़ियों की बस्ती की ओर बढ़ चला...जहाँ नन्हे-नन्हे बच्चे हफ्ते भर से इंतज़ार कर रहे थे अपने देव अंकल का।
