KP Singh

Tragedy Inspirational

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KP Singh

Tragedy Inspirational

आँगन का नीम

आँगन का नीम

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कभी आँगन की शोभा बढ़ाने आँगन के बीचों बीच लगा नीम का पेड़ अब आँगन में ठीक नहीं लग रहा है, तो सोच लिया अब कटाना पड़ेगा और वो दिन भी आ गया जब मेरे ही जनरल डायरी (डायर) निर्देश पर हरी पतियों से भरपूर लदे नीम के पेड़ के मोटे तने पर दो कुल्हाड़ी बाज लगातार वार किए जा रहे थे।इस पेड़ से मेरा जुड़ाव ही कुछ इस तरह का था की कुल्हाड़ी की मारकता अंदर से महसूस हो रही थी।    


       मुझे कुछ याद नहीं पर माँ कहा करती थी इसी नीम की छाँव में घुटनों पर चलते चलते पैरो पर खड़ा होने की जुगत में धम्म से गिर जाता और इसी की छाँव में बैठे तेरे दादा तुझे देख खुश हुए जाते थे। याद है कुछ धुंधला सा, पैरो पर जब दौड़ने लग गया तो ना तो मम्मी के साथ रसोई में मन लगता और ना ही बरामदे में बापू को काम करता देखने में, मैं बस बरामदे और नीम के बीच की धूप को पार कर नीम की छाँव में सारे दिन पता नहीं क्या पर खेला ही करता, नीचे पड़ी नींबोरी(नीम का फल) खा, सोचता कब पेड़ पर चढ़ डाली से तोड़ खा सकूँगा, नीम का पेड़ जितना खारापन खुद में समेटे था वही उसके विपरीत नीम की नींबोरी उतनी ही मीठी थी। आती गर्मियों का वो दौर भी इसी नीम का दिया था, जब दादाजी सुबह सुबह नीम पर आए उसके छोटे छोटे सफ़ेद फूलो को कूट उनका जूस बना पूरे घर को पिलाते, ये जूस पूरे नीम का खारापन खुद में लिए होता, जैसे ही हरे जूस से भरी गिलास मेरी तरफ़ बढ़ाते बस एक ही बात मन में आती क्यूं ना नीम को ही काट दूँ पर हाँ ये कुछ 10 दिन की ही पीड़ा थी, चलते समय ने मुझे अब इतना बड़ा कर दिया था की नीम पर चढ़ना और दौड़ना अब मेरे लिए उतना ही सरल था जितना जमीं पर चलना। जब चलना सीख रहा था तब पूरा समय नीम की छाँव में गुजरता और अब पेड़ पर चढ़ना आ गया तो पूरा समय नीम पर ही गुजरता, किशोरावस्था से जवानी की और बढ़ता मैं अब नीम के साथ खेलने की बजाय अब दोस्तों के साथ रहने लग गया था पर नीम की छाँव में अब भी खूब मन लगता। पढ़ाई, दोस्त और भविष्य की चिंता ने आज कल नीम से अलगाव सा कर दिया। बीच आँगन में खड़ा पेड़ आते जाते मुझे देखता और मैं उसे पूरा इग्नोर करते हुए निकल जाता। बचपन के इस साथी के नीचे बैठ रोया तो खूब था पर अपनी ख़ुशियों का साझीदार ना बना पाया तभी माँ बाबू जी के जाने के बाद तेरी छाँव ने ही सिर पर हाथ फिराया और मैं अपनी नौकरी लगने की ख़ुशी भी तुझ से ना बाँट सका और आज जब घर का मुखिया ही मैं हूँ तो घर को और बेहतर और अच्छा बनाने में आज मुझे अपनी छाँव में पालने वाला ही रोड़ा नज़र आया, मैं रोड़ा हटा भी रहा हूँ और अंदर से कही आवाज़ आ रही हे विकास की अंधी दौड़ में दौड़ती दुनिया कहीं विनाश तो नहीं कर रही.......


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