KP Singh

Drama Others

3  

KP Singh

Drama Others

अरमानों की थड़ी

अरमानों की थड़ी

3 mins
255


छात्र जीवन विशेष कर जब आप अपने गृह शहर से बाहर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी या कालेज में पढ़ रहै हो तब हमारे जीवन में चाय की थड़ी यानी चाय की टपरी का महत्व युवा अवस्था के पहले प्यार की तरह होता है जो कभी भुलाए नहीं भूलता। छात्र जीवन के उस दौर में जीवन में आई थड़ी जीवन भर साथ रहती है, मेरे जैसे कई लोग है जो आज भी जब कभी अपने उस दौर के शहर जाने का मौक़ा मिलने पर दो घड़ी ही सही पर उस थड़ी पर ज़रूर हो आएँगे और चाय बनाने वाले भाई और पेश करने वाले छोटू के हाल चाल पूछे बिना वापस शहर से आने पर खालीपन ज़रूर साथ लाएँगे, हाँ वो जगह ही कुछ ऐसी थी की हर किसी को अपना बना लेती थी यहाँ धुएँ में उड़ती बेफ़िक्र ज़िंदगियाँ, चुस्कियों से जवाँ होते अरमान तो ठहाकों की मौज लेती जवानियाँ बसती हैं, यहाँ पसरे सन्नाटे परीक्षाओं के ख़ौफ़ के गवाह बनते तो भीड़ परीक्षाओं की दूरी की गवाही देतीं इन्हीं थड़ियों पर बैठ भविष्य के सुंदर सपने जवान होते तो गप्पों की आड़ में ख़ुद को क़लंदर भी साबित किया, शाम की चाय के बाद रात को होने वाली पार्टी का प्लान भी यही बना ओर अमेरिकन सिस्टम (सब जनो से थोड़ा थोड़ा इकट्ठा कर) से भी पैसे कम पड़ने पर चाय वाले भैया में ही उम्मीद की किरण दिखी भैया ने भी कभी उम्मीद ना तोड़ी पैसों की कमी छात्र जीवन की आम समस्या थी या यूँ कहें ये समस्या नहीं बल्कि उस दौर का जीवन ही था पर हर बार इस कमी को पूरा करने में घर दूर पड़ जाता था, दोस्त ख़ुद भी जूझ रहे होते तो यही चाय वाले भैया ही सहारा बनते।

सुबह उठते ही जाना तो शाम का समय भी फ़िक्स रहता ओर कभी कभी तो जब पढ़ाई का दबाव ना होता तो एक, एक के बाद दूजी ओर ये दौर देर तक चलता ही जा रहा होता, रूम पर या होस्टल नहीं होने पर दूसरी जगह ये अरमानों का अड्डा ही हुआ करती। परीक्षा के ख़त्म होने ओर घर आने तक जो बीच के दिन थे अकसर पूरे इन थड़ियों पर ही गुज़रा करते, सुबह का अख़बार चाय ओर गप्पें इन थड़ियों के अलिखित मेन्यू के पहले पेज पर होते है इन थड़ियों पर चाय ओर गप्पों के शौकिनॉन का जमघट आहा देखते ही बनता था। शहर में आते ही बैग काँधे से उतार नीचे रखते हुए इसी थड़ी पर पहली बार चाय का ओर्डर देकर भैया से पुछा था “ आस पास कोई रूम मिल जाएगा क्या “ और जाते टाइम भी चाय ख़त्म कर बैग उठाते हुए उसी थड़ी वाले भैया से पुछ था “लास्ट बस कितनी बजे आती है।" मेरे आगमन ओर विदाई दोनों का गवाह थी ये थड़ी, ऐसा नहीं की लगाव उस थड़ी से ही था लगाव थड़ियों से है और आज भी बेदस्तूर जारी हैं उस छात्र जीवन के दौर की उस पहली थड़ी के बाद जीवन के हर दौर में चाय की थड़ी जीवन का बहुत ही ज़रूरी हिस्सा रही है इसलिए ये थड़ियां चाय की ही नहीं वरन अरमानों की भी थड़ी है।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama