Anandbala Sharma

Abstract

5.0  

Anandbala Sharma

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आज का सच

आज का सच

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आज फिर रात को नींद नहीं आई। पूरी रात आँखों में ही कट गई। अक्सर ऐसा ही होता है। विचारों के रैले पर रैले। कभी असंबद्ध तो कभी एक दूसरे में गुथे हुए से।

बहुत बैचेन है मन। शायद विचारों की भीड़ के कारण। वजह स्पष्ट भी है और अस्पष्ट भी । मन में अस्थिरता सी है। बैचेन मन से कुछ भी करने को मन नहीं करता फिर भी उसे दूर करने के उपक्रम में लगी रहती हूँ। कभी पौधों को पानी देती हूँ तो कभी पूरा समाचारपत्र छान मारती हूँ। बैचेनी से बचने के लिए पूरा मगभर चाय धीरे-धीरे गटक जाती हूँ पर कोई फायदा नहीं। हम जो कुछ भी करते हैं हमारा मन उसमें शामिल होता है। काश! मन के बगैर भी हम कुछ कर सकते।

खिड़की से बाहर झाँक कर देखती हूँ। समीप ही पार्क में बच्चे रंगबिरंगे परिधानों में निश्छल  भाव से उछल कूद कर रहे हैं और खेल रहे हैं। कुछ देर मन उनमें ही उलझा रहता है और फिर वापस आजाता है मेरे पास ज्यों का त्यों।

मन तो करता है मन्दिर में रखी घन्टियाँ खूब जोर जोर से बजाऊँ ताकि मन में उठने

वाली सारी आवाजें उनमें गुम हो जाएँ.....दिन की दूसरी पारी शुरू हो चुकी है। दिन बड़े बड़े और खिले खिले से हो गए हैं। ऋतुराज बसंत ने दस्तक दे दी है। प्रकृति से जोड़ने वाला बसंत कहीं दिखाई नहीं दे रहा। सूखती नदियों, कटते पहाड़ों और सिकुड़ते जंगलों में बसंत कहीं खो सा गया है। कोंपलें सूख गई हैं। रस रूठ गया है। रंगबिरंगे फूल,गीत गाते पक्षी प्रदूषण की मार से मटमैले व बदरंग हो गए हैं। सूर्य और चन्द्र अपनी आभा धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं। इनके स्वाभाविक सौंदर्य को वापस लाने के लिएबसंत को नए रंग ढंग तलाशने होंगे। बसंत की अनुभूति के तरीके बदलने होंगे। नए जागरण का आह्वान करना होगा। माँ सरस्वती की आराधना वीणावादिनी नहीं वरन शुंभ-निशुंभ मर्दिनी के रूप में करनी होगी।

हमें अपने प्राणों में बसंत के प्रति नवीन अनुभूति जगानी होगी । हो सकेगा क्या ऐसा ? क्या प्रकृति के प्रति अपने दायित्व को निभा पाएंगे हम ?

शाम होने वाली है। घर में फैले एकान्त के कारण अपनी ही धड़कनें साफ साफ सुनाई दे रही हैं। मन बहुत कुछ कहना चाहता है। जीवन में ठहराव सा आ गया है। समय खामोशी के साथ बीत रहा है शान्त भाव से। पर नहीं इस शांति के आगोश में एक आग है, लावा है जो सुलग रहा है। जला देने के लिए वह सब कुछ जो पुरातन जीर्ण शीर्ण है,अप्रिय है, पीड़ादायक है।

अन्धेरा धीरे-धीरे अपने पाँव पसार रहा है। मैं एक दीपक जलाकर तुलसी के पास रख देती हूँ। एक अकेला दीपक अपनी ज्योतिर्रश्मियों से अन्धेरे को चीरते हुए प्रकृति के प्रति नई अनुभूति को जगाने में सक्षम है, जलाने होंगे और भी बहुत से दीपक।


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