आग का दरिया
आग का दरिया
आग का दरिया
(कहानी)
सुबह का सूरज अभी धरती पर अपनी चादर पूरी तरह फैला भी नहीं पाया था कि पूरे गाँव में मानो बिजली सी गिर गई।
"चनेसरा पंडित की छोटकी बहू पड़ोस के देवर संग भाग गई!"
खबर ऐसी फैली जैसे बरसात में पकी फसल पर ओलावृष्टि हो गई हो।
गली-मुहल्ले, चबूतरों और चाय की दुकानों पर इसी एक नाम की गूंज थी — "छोटकी!"
सरपंच हरिराम साहब अपने घर के आंगन में नीम के नीचे बैठकर खैनी मल रहे थे। खबर सुनते ही जैसे किसी ने चुटकी भर मसाला उनकी हथेली में थमा दी हो, वो बोले –
"हमरा कहा याद आया ना, जब नवलेश को समझाए थे तो उल्टा हमको ही कोसने लगा था। अब भुगतो!"
चनेसरा के आंगन में सन्नाटा नहीं था, वहाँ शोर था — तमाशे का, शर्म का, बहू के चरित्र पर घिसे-पिटे तंजों का।
"पेट सी थी! मर्द तो लुधियाना कमाने गया है... फिर बच्चा कहाँ से आ गया?"
"अरे मोबाइल नया मिला था... छोटकी तो फेसबुक पर 'लव यू जान' लिखती थी!"
"देखे थे न पिछली बार बाड़ी में देवर संग हँसती हुई... तभी समझ गए थे!"
लेकिन कोई यह नहीं पूछ रहा था कि वह बहू क्यों भागी?
उसके भीतर जो अकेलापन था...
जो प्यार की भूख थी...
जो सम्मान की तलाश थी...
उसका कोई मोल नहीं।
गाँव की चौपाल पर अगले दिन पंचायत बैठी।
सरपंच की मूंछें तनी थीं, नवलेश पंडित का चेहरा झुका था।
"ऐसी बहुओं को गाँव से बाहर करने का फरमान देना चाहिए!" — एक बुज़ुर्ग बोला।
"काहे? अकेली बहू ही दोषी है?" — अचानक भीड़ से आवाज आई।
सब चौंके। यह आवाज थी बड़ी बहू की, यानी उस 'छोटकी' की जेठानी की।
"जब उसका पति उसे सालों साल छोड़कर लुधियाना में किसी और के साथ ऐश कर रहा था, तब किसी ने सवाल नहीं उठाया!"
"जब देवर उसे ताने देता था – 'भाभी तो अकेली फूल जैसी लगती हो', तब भी कोई नहीं बोला!"
"उसे दोष देने से पहले अपने बेटों को देखो! क्या वे दूध के धुले हैं?"
गाँव सन्नाटे में डूब गया।
औरत की आवाज पहली बार गूँजी थी — सच की तरह, आग की तरह।
बड़ी बहू ने आगे कहा –
"छोटकी भागी नहीं, उसने किसी की मर्जी थोपे बिना जीने का फैसला लिया।
वो कायर नहीं, साहसी थी।
वो इश्क़ में पड़ी, लेकिन झुक कर नहीं, सिर उठा कर!"
लोग हक्के-बक्के रह गए।
और अगले दिन से गाँव में दो बातें साफ़ थीं —
छोटकी अब लौटकर नहीं आएगी, और गाँव की औरतों की आवाज़ अब इतनी भी कमजोर नहीं रही।
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समाप्त

