Niranjan Kumar Munna

Others

3.4  

Niranjan Kumar Munna

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एक पागल था

एक पागल था

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कॉलेज जाते वक्त रास्ते में वह अक्सर मिल जाया करता था। कभी सड़क किनारे खड़ा, तो कभी गटर के सामने पड़े कूड़े के ढेर में से कुछ ढूंढते हुए। कभी-कभी लोग उसे दुत्कारते भी थे, कोई आते - जाते रास्ते में उसको गाली-गलौज भी कर जाता था, लेकिन वह इस तरह लोगों को देखता, जैसे की उसको साथ कुछ हुआ ही नहीं हो। अस्तव्यस्त फटे-पुराने कपड़े में वह, कड़ी चिलचिलाती धूप में, पैर बिना चप्पल के, स्वयं को खिंचते हुए वह आगे इस तरह सड़क पर बढ़ता, जैसे की वह रेंग रहा हो।

मैं जब भी कॉलेज के लिए हनुमाननगर की ओर से निकलता, वह जरूर कहीं न कहीं नजर पड़ ही जाया करता था । और जब भी मैं उसको देखता, तो कुछ पल के लिए ठहर जाता। मेरी नजर भी उसपर कुछ देर के लिए केंद्रित हो जाया करती थी।

और कुछ देर देखने के उपरांत मैं फिर वहाँ से आगे चलते बनता।


काॅलेज पहुंचते ही मैं अपना काम में इस तरह खो जाता कि उसको बारे में दिमाग में कुछ ख्याल ही नहीं आता।


यह सिलसिला लगातार चलते जा रहा था। जाते हुए भी मेरी नजर उसको खोजने लगती , और काॅलेज से आते हुए भी हनुमाननगर के सड़कों पर उसको देखने के लिए इधर-उधर अपनी नजरें घुमाता रहता । 


लेकिन एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि मुझको उसको जानने के लिए हार्दिक इच्छा होने लगी थी। आज भी मुझको वह दिन अच्छी तरह से याद है। 


करीब दोपहर का बारह बज चुका होगा। और कॉलेज की पढ़ाई का अंतिम सप्ताह था। इसको बाद गर्मी की छुट्टियों के लेकर काॅलेज बंद हो जाया करती थी । 


मैं काॅलेज से निकलकर सीधा तेजी में साइकिल चलाते हुए सड़क पर आगे बढ़ता हुआ चला आ रहा था। सिर के ऊपर सूर्य की तेज रौशनी इस तरह बरस रही थी कि मानो अपनी तेज से सूर्य इस संसार को अभी-अभी भस्म ही कर देंगे। सड़क पर तेज धूप में धूल उड़ती गाड़ियों का रेला के साथ-साथ मैं आगे बढ़कर बाबा चौक के पास से मुड़ गया था। 

बाबा चौक से ही हनुमाननगर होते हुए मैं महेश्वरी कॉलनी जाता था। जैसे ही मैं हनुमाननगर पहूँचा तो देखा, वह आदमी नाले के बगल में टूट चुका एक नल की तरफ बढ़ रहा है। मैं उसको देखतें ही साइकिल को रोक दिया, और बोला, - "ओ भाई वह पानी पीने लायक नहीं है, देख नहीं रहे हो नल और नाले की पानी एक होकर बाहर की तरफ आ रही है।" 

लेकिन वह मेरी आवाज़ को शायद उस समय नहीं सुन पाया होगा, या सुनकर भी अनसुना करने का मन बना लिया होगा। 

जब वह मेरी आवाज़ पर नहीं रूका, तब मैं तेजी से उस आदमी की तरफ बढ़ चला। और सामने आते हुए बोला, -" ये पागल हो क्या...? "


मेरी आवाज़ सुनकर वह ऊपर की ओर देखा। कुछ पल तक मुझको देखते रहा और फिर, बाद में मुस्कुराते हुए वह कुछ इशारा किया। 

मैं उसको इशारे को उस समय समझ तो नहीं पाया था कि वह मुझसे बोलना क्या चाहता है। परंतु मैं अपना बैग को कंधा से उतार कर, उसमें रखा हुआ वाटरबोटल को उस आदमी की तरफ बढ़ा दिया था। 

वह कुछ खाने के लिए इशारा भी किया था। लेकिन उस समय मेरे पास न उतना पैसा था, और नहीं मेरे पास कोई लंचबॉक्स ही था, जो मैं उसको मदद करता ।


परंतु अगले दिन से..... ।


मैं अगले दिन से उसको लिए एक लंचबॉक्स में कुछ खाने-पीने का समान रख लिया करता था। और हनुमाननगर आतें ही उस पिपल के वृक्ष के नीचे, जहाँ पर एक छोटी मंदिर हनुमानजी का बना हुआ था पहले से ही , वहाँ पर खड़ा होकर उस पागल आदमी को इंतजार करने लगता था। 


वह आदमी एक दिन के उपरांत, अपना लंचबॉक्स लेने प्रतिदिन उस पिपल वृक्ष के नीचे आ जया करने लगा... ।

वह लंचबॉक्स लेकर बहुत खुश होता था , जैसे की उसको कोई खज़ाना हाथ लग हो। अब तो यह क्रिया मेरे लिए नित्य का हो गया था। 

जब कॉलेज में गर्मी की छुट्टी हुई तो मैं अपना गाँव वापस नहीं जा सका। क्योंकि मुझको लगा की अगर मैं गाँव चला गया तो उसको एक समय का भोजन कौन देगा? 

वह प्रतिदिन पीपल वृक्ष के नीचे मेरा इंतजार इंतजार करते रहता, उस समय का जिस समय पर मैं उसको लिए खाने का लंचबॉक्स लेकर आता था । 


भूख हो या प्यास, हर किसी जीवित प्राणी को ये अनुभव होता है। और सुना था कि संसार में किसी को भोजन खिलाने से बड़ा कोई पुण्य का काम नहीं होता। जब मैं उसको लिए लंचबॉक्स लेकर कमरा से निकलता तो यह सोचता की आज मैं उससे उसको बारे में कुछ पूछेंगे। लेकिन उसको पास जातें ही मैं उससे कुछ पूछ ही नहीं पाता था। 


परंतु एक दिन... ।

जब मैं खाना देकर वापस लौट रहा था, तब सामने का एक दुकानदार ने मुझको अपनी ओर इशारा करके बुलाया। 


"क्यों भाई इस पगला को जानते हो क्या?" - दुकानदार एक मोटा सा, बेढंगा किस्म का आदमी था, जो मुंह में गुटका डालें हुए लगातार चबाये और बोले जा रहा था । वह मोटा सा बेढंगा किस्म का दुकानदार ने मुझको दुकान के पास आते ही अपनी लाल-पिले बत्तीसी दिखाते हुए मुझसे सवाल किया । 


"नहीं तो, क्या आप उसको जानते हो?"

"हाँ हाँ क्यों नहीं, यही तो आगे वाली गली में उसका मकान है।" 

"तो फिर ये आदमी ऐसी जिन्दगी क्यों जी रहा है?" 

- मेरे सवाल पर वह मुस्कुराहट भरे अंदाज में बोलना शुरू किया तो बोलता ही चला गया।

"अरे जानकर क्या करोगे... यह सब इस जुग का प्रभाव है न। कलियुग है कलियुग.... ।"

" मतलब? "

" मतलब समझकर क्या करोगे बाबू? बस मैं तो तुमको यूं ही बोला लिया की शायद कोई इस पागल आदमी का रिश्तेदार होगा तो जरा कुछ बातचीत कर लें।" 


"नहीं - नहीं मैं इन्हें नहीं जानता। "-मैंने दूर खड़ा उस पागल की ओर देखते हुए दुकानदार से बोला था। 


कुछ ही मिनटों के अंदर-अंदर वह पागल आदमी धीरे-धीरे करके सड़क को पार करते हुए, उस पार चला जा रहा था। एक दम से शांत। किसी की तरफ वह अपना सिर भी उठाकर नहीं देख रहा था। 

दुकानदार को इस तरह बोलने से मेरे मन में उस पागल के लिए जिज्ञासा और बढ़ गया । परंतु दुकानदार ने यह कह कर उस दिन मुझको विशेष उसको बारे में नहीं बताया कि जाइयें न कभी मौका मिला तो मैं बताये दूंगा। 


दुकानदार के अनुसार, वह पागल व्यक्ति बहुत पढ़ा-लिखा इंसान था। लेकिन सब भाग्य का खेल है, ऊपरवाला ने न जाने कब किसको साथ कौन सा खेल खेल दे, किसी को पत्ता नहीं चलता। 

इतना बोलकर दुकानदार पुनः अपना काम में जुट गया था, और मैं मन में कई प्रश्न एक साथ लिए हुए दुकानदार से कल मिलेंगे, बोलते हुए आगे बढ़ चला। एक थके हुए मुसाफिर की तरह। पता नहीं उस पागल को लेकर मैं इतना सिरियस क्यों था? 


भाग - 2


लेकिन अगले दिन वह दुकानदार नहीं मिल पाया। उसका दुकान बंद पड़ा था। मैं निराश मन से आगे बढ़ा, जिधर हनुमान मंदिर के पास वह पागल मिला करता था। मिलने की बात क्या करूं, वह तो अब मेरा ही इंतजार करता रहता था, जैसे की उसकी भूख को मिटानेवाला शायद मेरे सिवा कोई और हो ही नहीं।

परंतु भाग्य में उसको से मुझको मिलना उस दिन नहीं लिखा था। मैंने बहुत देर तक उसको वहाँ पर इंतजार किया, इधर-उधर देखा लेकिन वह पागल व्यक्ति मुझको कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा था।

तभी सामने खड़ा एक गुमटी पर पान बेचने वाला लड़का से मैंने पुछा, - "वह पागल नहीं है क्या? "

 इतना सुनते ही पान बेचनेवाला लड़का ने बोला, - "क्या बोला?"

"वह जो एक पागल जैसा आदमी था न...?"

"अच्छा वह रिसर्चर बाबू के बारे में बोल रहे हो?"

"हाँ - हाँ उसी के बारे में पुछ रहा हूँ भाई? लेकिन तुने उसका नाम क्या बतलाया?"

"उसका नाम तो नही पता, लेकिन लोग उसको रिसर्च बोला करतें हैं।"


मुझको बहुत दिनों के बाद पता चला था कि लोग उसको रिसर्चर बाबू बोला करते थे।

" क्या वह सचमुच में रिसर्चर रहा है!" - मैंने हैरानी जताई।

" नहीं - नहीं उ रिसर्चर क्या रहेगा लोग ऐसे ही बोल दिया करतें हैं।"-पानेवाले ने अपना सा मुँह बनाता हुआ बोल पड़ा था।

लेकिन उसको बोलने से मेरा मन कहाँ शांत रहनेवाला। मैं पता नहीं उसको बारे में अधिक से अधिक क्यों जानना चाह रहा था।

" और कुछ जानते हो उसको बारे में?"

" क्यों भाई क्यों, उसको बारे में क्यों इतना जानना चाहते हो...? "-पानेवाले ने अबकी बार मुस्कुराहट भरे अंदाज में मुझसे बोला था ।

"ऐसे ही.... हो सकता है कुछ ऐसा मिल जाये की एक कहानी बन जाय।"

"क्या लेखक हो?".

"नहीं-नहीं अभी तो छात्र हूँ, लेकिन लिखना मुझको अच्छा लगता है। ".

" तो एक काम करो न ... इस गली को छोड़कर आगे वाली गली में तीन मकान के बाद उसका मकान है दाएँ तरफ, वहीं चले जाओ।"


 इतना सुनते ही पान की दुकान के सामने से मैं पीछे हट गया। और उत्साह में आकर उस ओर चल पड़ा, जिधर पानेवाले ने मुझको जाने के लिए इशारा किया था।

सचमुच एक आलिशान मकान के सामने मैं कुछ ही मिनटों के अंदर - अंदर खड़ा था।

सामने का मुख्य दरवाजा जो लेहे का बना हुआ एक ग्रिलनुमा जैसा था, वह अंदर से बंद था।

मैं अंदर तो जा नहीं सकता था, क्योंकि बीना अनुमति को किसी के मकान में प्रवेश नहीं करना चाहिए, लेकिन मकान के ठीक सामने बना एक सरकारी इमारत के पास तो मैं बैठ ही सकता था।


वह सरकारी इमारत एक अनाज का गोदाम था। मैं आगे की ओर बना हुआ ओसारे में खड़ा हो गया, और सामने मकान की तरफ देखने लगा।

मैं यह देखना चाहता था कि इस मकान में रहनेवाले लोग कितना निष्ठुर हैं, जो अपने ही घर का एक सदस्य को भोजन तक नहीं देते। वो इस तपती

हुई दोपहरी में इधर-उधर सड़क पर, नंगे पाँव भटकता रहता है। गंदे नाले की पानी पी कर अपना प्यास बुझाने की कोशिश करता है। नाले के बगल में पड़ा हुआ बदबूदार कूड़े में से कुछ खोज निकालने की कोशिश करता है।


 क्या कोई पागल हो जाता है किसी कारण बस तो उसकी जिन्दगी का कोई मूल्य नहीं रह जाता? क्या पागलों के पास कोई संवेदना नहीं होती? क्या उन्हें सुख और दुःख का कोई अनुभव नहीं होता?

मैं खड़ा - खड़ा बहुत कुछ सोचे जा रहा था, लेकिन न मेरा मन मेरे पुछे गये सवालों को कोई उत्तर दे पा रहा था? और नहीं कोई व्यक्ति उस मकान से बाहर ही आ रहा था।

मैं कुछ देर तक यूं ही वहाँ पर खड़ा रहा। और कुछ देर के बाद, मैं अपनी साइकिल को संभाला , और वहाँ से चलते बना, यह सोचते हुए कि इसको बारे में पता तो लगा कर ही रहूंगा।


साइकिल लेकर मैं अपने निवास स्थान पर पहुंचा। गर्मी बहुत अधिक थी। तपस से मेरा चेहरा झुलस सा गया था। चारों ओर धूल ही धूल हवा में बिखरा पड़ा था। ऐसा लग रहा था कि साँस लेना भी कठिन है।


"इधर कुछ दिनों से कहाँ जा रहे हो जगमोहन बाबू?"

-वाॅचमैन ने आते ही मुझको टोका।


वाॅचमैन उम्र में मेरे पिताजी के समान थें। ऐसे तो ज्यादा किसी को टोका-टोकी वो नहीं करते थे, लेकिन कभी-कभी कुछ संदेह उन्हें होने लगता तो जरूर सवाल कर बैठते थे।


"का करे काका... यही हनुमाननगर चला जाता हूँ प्रतिदिन। "

" क्या कोई कोचिंग पकड़ लिए हैं का?"

"नहीं काका कोचिंग जाने का अभी फुर्सत कहाँ है। बस एक पागल आदमी को टिफिन देने चला जाता हूँ...।" - जब मैं बोलना शुरू किया था न, तो मैं बोलता ही चला गया, जबतक मैं उस पागल आदमी का सारा किस्सा न सुना दी।


"दूत तेरी की जै हो....आज के डेट में कौन इतना करता है बाबू... वह भी किसी पराये व्यक्ति के लिए... ठीक है, यही सोच रहा था की आखिर ये गर्मी की छुट्टी में अबकी बार गाँव क्यों नहीं गये।"

इतना बोलकर वॉचमैन सामने लगे हुए एक पुरानी कुर्सी पर पसर गये। आगे के टेबल पर दोनों अपना पैर रखकर उनको बैठने की आदत सी थी। 


मैं तेजी से सीढ़ियों से होते हुए ऊपर अपना कमरा तक आया, और आते ही एक सरसरी नजर इधर-उधर डालना शुरू कर दिया। 


कमरा में लापरवाही से बहुत से समान इधर-उधर पसरा पड़ा था। 

मैं आते ही कपड़े बदलकर, जल्दी - जल्दी फ्रेश हुआ और चौकी पर लापरवाही से पसरते हुए छत की ओर देखने लगा । 


मेरे सिरहाने टेबल फैन अपनी पूरी शक्ति लगाकर मुझको हवा देने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उस बिजली के पंखा में इतनी शक्ति कहाँ थी, जो मेरे मन में चल रहे दाह को वह शांत कर सके। 


पंखा के डैने से निकलकर आनेवाली हवा में भी कम गर्मी नहीं थी। जब चारों ओर के हवा में गर्मी ही गर्मी हो, तो आप लाख कोशिश कर लो स्वयं को ठंडक पहुंचाने के लिए, पहुंचा ही नहीं पाओगे। 


मैं लेटे हुए ऊपर की छत की ओर देखे जा रहा था और सोचते भी जा रहा था कि वह पागल कहाँ गया होगा....? 

पूरा का पूरा परिवार ऐसों - आराम की जिंदगी जी रहा है, और उसको न खाने का कोई ठिकाना है न पीने का। 


क्या हम इसी दिन के लिए परिवार के कामना करते हैं। परिवार तो इसी के लिए होता है न, ताकि हमें किसी भी स्थिति में साथ नहीं छोड़े। लेकिन नहीं, कुछ लोग इतने भाग्यशाली नहीं होते...।


मेरे दिमाग में उस समय तरह-तरह के ख्याल आते जा रहें थे। मैं स्वयं से बातें करता जा रहा था, और स्वयं ही अपनी बातों को उत्तर भी देने की कोशिश कर रहा था। फिर पता नहीं सोचते - सोचते कब आँख लग गयी, कि उठा सोकर लगभग तीन बजे। 


तीन बजे जब मैं सो कर उठा तो मन कुछ हल्का - हल्का सा लग रहा था। मौसम भी कुछ नर्म हो चला था। तभी मन किया कि क्यों न आज चलकर थिएटर में सिनेमा देखा जाये। उस समय ऐलफिस्टेन में गोविंदा और करीना कपूर की कोई फिल्म आई थी। 


भाग - 3


रात्रि हो चुकी थी।

और मैं ऐलफिस्टेन थियेटर से बाहर निकलकर ऑटोरिक्शा के लिए सड़क के किनारे इंतजार कर रहा था।

लेकिन कोई भी ऑटोरिक्शावाला अपनी गाड़ी को रोक नहीं रहा था। लगभग आधे घंटे बाद मुझको एक ऑटोरिक्शा मिला तो ऑटोरिक्शावाला ने अपनी गाड़ी को रोकते हुए बोला, - "कहा जाने का है ...?"


"महेश्वरी।"

"नहीं महेश्वरी नहीं जायेगी ये हनुमाननगर जायेगी... ।"

"ठीक है लेते चलो।"

मैंने सोचा कि चलो एक घंटा पैदल चलने से तो ज्यादा अच्छा है बीस मिनट ही पैदल चलूं। हनुमाननगर से महेश्वरी कॉलनी पैदल चलने पर बीस मिनट के समय लग जाते थे, और साइकिल से सात से आठ मिनट।


ऑटोरिक्शा पर मैं बैठकर शहर का वलोकन करते हुए गाड़ी के साथ - साथ मैं भी आगे बढ़ते जा रहा था। लगभग ऑटोरिक्शावाला ने दस मिनट के अंदर - अंदर ही वह हनुमाननगर गाड़ी को पहुंचा दिया। 

और मैं उसको हनुमाननगर का किराया देकर तेजी से उस सड़क की तरफ मुड़ गया जो सड़क महेश्वरी से होते हुए आगे गणपत्त तक जाती थी। 


शहर में रात्रि के समय का ज्यादा पता नहीं चलता, फिर भी लगभग रात्रि का दस से कम नहीं बज रहा होगा ।


मैं टिमटिमाते हुई रौशनी में तेजी से आगे बढ़ता हुआ चला जा रहा था। लगभग सारे दुकान बंद हो चुकी थी। और एक-दूका दुकान खुली भी थी तो वह बंद होने ही वाली थी।


मैं नाले के सामने से गुजरता हुआ वही हनुमान मंदिर के पास पहुंचा था, जहाँ उस पागल आदमी को मैं भोजन खिलाया करता था।

मंदिर का कपाट बंद पड़ा था, और बाहर चबूतरे पर कुछ कुत्ते आराम फरमा रहें थे।

मैं मंदिर के सामने ठहर सा गया। मुझे लगा की मंदिर के पीछे अंधेरे में कोई व्यक्ति है जो धीमे-धीमे आवाज में कुछ बोल रहा है।

मुझको लगा की शायद वही पागल आदमी तो नहीं, जिसे लोग रिसर्चर कहा करते हैं।


जैसे ही मेरे दिमाग में यह बात आई, वैसे ही मैं धीरे-धीरे, दबे पाँव आगे बढ़ना शुरू किया।


और कुछ ही सेकेंड के अंदर मैं मंदिर के पीछे बना हुआ एक पानी के हौज के पास था। वहाँ से मैं बहुत ही आसानी से मंदिर के पीछे वाले हिस्सा को देख रहा था।


सच में वहाँ पर दो इंसान थे, और दोनों इतनी उमस भरी गर्मी में भी चादर ओढ़े सोने की कोशिश कर रहें थे कि मत पूछो। 


मुझको कुछ अजीब सा महसूस होने लगा था, क्योंकि वो सो नहीं रहें थे। वो कुछ और करने में व्यस्त थे। कोई इंसान इतनी उमस भरी गर्मी में चादर क्यो अपना शरीर पर डालेगा?


मैं तेजी से आगे बढ़ा, और आगे बढ़कर सोने का उपक्रम करते हुए व्यक्ति पर से चादर खिंचते हुए बोला, - "रिसर्चर...!!"


 मेरे मुंह से उस पागल का नाम अनायास ही निकल पड़ा था। लेकिन चादर खिंचते ही मैंने देखा, वह रिसर्चर ही था, परंतु उसको साथ जो एक और इंसान था वह कोई पुरुष नहीं, एक पागल महिला थी।


सच में,

रिसर्चर के साथ एक पागल महिला ही थी...।


"ये क्या कर रहे हो? "-जैसे ही मैंने बोला, वैसे ही रिसर्चर के साथ, वह जो पागल टाइप की महिला थी न, वह मुझपर आक्रमण कर दी।

अगर मैं वहाँ से तेजी से नहीं भागता तो वह मुझको क्षति भी पहुंचा सकती थी।


किसी प्रकार उस पागल से पीछा छोड़ाकर, मैं अपना निवास स्थान पर पहुंचा। मेरा मन घृणा और नफरत से उस पागल आदमी के लिए भर गया था। मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि पागलों की भी ग्रल फेंड होते हैं । सच में युग बहुत बदल गया था, जिसे हम पागल समझने की गलती करते हैं, वह वास्तव में अंदर से कुछ और ही होता है । 


 - :समाप्त :-


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