Shubhra Varshney

Tragedy

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Shubhra Varshney

Tragedy

आ जाओ रे मेघा

आ जाओ रे मेघा

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प्रचंड गर्मी से इंसान तो इंसान पेड़ पौधों को भी पसीना आ रहा था लेकिन यह विकल कर देने वाली गर्मी सरजू के मन के ताप के सामने कुछ भी ना थी।

खेत के किनारे उकड़ू बैठा वह मुंह उठाएं आसमां को ताक रहा था .... मेघ भी इतने निष्ठुर हो चले थे ....इधर दरस दिखाते उधर अपने साथी पवन के साथ जाने कहां सैर करने निकल जाते।

तन से तो वह थक गया था पर जीवन जीने की उसकी जिजीविषा ने कहां हार मानी थी ... सिंचाई के अभाव में फसल दम तोड़ने को तैयार थी और वह था कि प्रतिबद्ध कि हर हाल में वह फसल बचाकर रहेगा.... फसल ना हुई उसका बालक हो गया जिस की प्राण रक्षा हेतु उसे स्वयं का होश भी नहीं था।

 मेघ को रूठा जानकर सूरज देवता अपनी लीला दिखा रहे थे..... मानो होड़ लगा रहे हो मेघ से कि तू नहीं बरसेगा तो देख मैं बरसाउंगा लोगों के शरीर से पसीना.... मेघ और सूरज की प्रतिद्वंद्विता का शिकार स्वयं को मान सरजू बार-बार सूरज देवता को कोस मेघ के हाथ जोड़ रहा था.... फिर कुछ सोचकर सूरज देवता के सामने सर नवाने लगा.... बार-बार माफ़ी मांग रहा था सूरज देवता से कि कैसे वह अधम अपने देवता को अपने भाग का दोष देने लगा... बावला सा हो गया था... बार-बार गाना गाते रहता, "आ जाओ रे मेघा.. आ जाओ रे मेघा।"

भीषण ताप से जहां सर चकराने लगा था वहीं पसीना पौंछ पौंछ कर अंगोछा भी तो तार-तार हो ही गया था.... नहीं तार-तार हो रहे थे सरजू के इरादे।

कभी सूखी मेड़ को देखता जो उसने रात भर खुदाई करके पास के तालाब से पानी अपने खेत तक पहुंचाने के लिए बनाई थी और कभी आसमान को ताकता.... जब अल्प जल लिए सूखता हुआ तालाब अपने अंतस्थ प्राणी गण मछलियों और कछुओं की रक्षा करने में असमर्थ था ऐसे में वह भला सरजू की परम आकांक्षाओं पर खरा कैसे उतरता।

कल रात से घर का आया हुआ सरजू जब दोपहर के बखत भी घर ना पहुंचा तो उसकी छोटी बेटी मंगला उसे ढूंढती खेत तक आ गई," बाबा काहे इत्ती घाम में बैठे हो.... देखो तो मौ कैसो लाल है गओ है तुम्हारो" फिर पेड़ के नीचे पड़ी पोटली को टटोलते हुए बोली," रोटी भी पूरी ना खाई... अरे काहे आसमान ताक रहे हो....बारिस तो जब होगी तब होगी क्यों अपने प्राण हलकान किए हो" अब भी सरजू को आसमान ताकते देख मंगला के आंखों से आँसू बहने लगे थे।

आसपास के खेतों में ट्यूबवेल से पानी आता देख रोती हुई वह बुदबुदा रही थी," बड़के भैया तुमने अच्छा ना किया"

मेहनत सभी किसान करते पर अपने परिश्रम के रक्त से अपना खेत सींचता सरजू भाग्य का भी बली था। उसकी फसल वर्ष के अंत तक औरों से दुगनी ही बैठती।

सरजू नित सपना सजाता कि वह कैसे अपनी फसल और बढ़ाए और जीवन की गाड़ी को आगे बढ़ाएं... अपने पुत्र माधव और पुत्री मंगला में उसके प्राण बसते थे.... भरी जवानी में साथ छोड़ चली अपनी पत्नी कमला के जाने के बाद बिरादरी के उकसाने के बाद भी उसने दूजा ब्याह नहीं किया।

अपनी बूढ़ी मां को उसने इन दोनों बच्चों की जिम्मेदारी सौंप दी थी...सौतेली माई डाह में इन फूल से बालकों को नुकसान ना पहुंचाए , इस कारण अपने सभी सुखों को तिलांजलि देकर वह जीवन पथ पर आगे बढ़ता गया।

दिन भर अपने प्यारे खेत में भरपूर मेहनत करता... घर आकर बच्चों के साथ उनके संसार में लीन हो जाता।

वह अपनी फसल को अपने दोनों बालकों के बाद तीसरी संतान मानता।

दोनों बालक बड़े होते गए... माधव पढ़ाई में अच्छा निकल रहा था...वह उस बछड़े की भांति था जिसका बैल रूपी पिता दिन भर खटकर आने पर अपने पुत्र को खेलता बढ़ता देखकर आनंदित होता था।

माधव को उच्च शिक्षा दिलाने के सपने उसके पिता सरजू को दोगुना परिश्रम करने का हौसला देते।

इधर इंद्र देवता अब रुष्ट रहने लगे थे...आसपास के खेतों में ट्यूबेल लगने लगे थे ...वही सरजू सोचता कि वह अगले साल ट्यूबेल जरूर लगवा लेगा पर कभी मां की सांस की बीमारी पैसा खा जाती कभी माधव के पढ़ाई के बढ़ते खर्चे उसका हाथ रीता रखते और ट्यूबवेल लगाने का सपना सपना ही रह जाता।

माँ को जो सांस की बीमारी ने पकड़ा तो वह बीमारी माँ के फेफड़े ही नहीं मंगला के ब्याह के लिए बनाए गहने भी खा रही थी।

सब विपरीत परिस्थितियों को देख जवानी के जोश में भरा माधव गुस्सैल होता जा रहा था...उसे अब अपने पिता की सब बातें गलत लगती.... वह आगे पढ़ाई करने शहर जाना चाहता था... सरजू की इच्छा थी कि माधव तकनीकी ज्ञान सीख कर उसके पास ही यही गांव में रहकर अपनी खेती को ही नई ऊंचाइयों पर पहुंचाएं पर माधव के तो सपने उससे अलग थे....माधव की जिद उसके पुत्र मोह पर भारी पड़ गयी।

माधव गांव में नहीं रुकना चाहता था। नई हवा के चलते जब सब शहर भाग रहे थे तो वह कैसे पीछे रहता।

माधव पढ़ने शहर चला गया था.... सरजू की जमा करी गई सारी रकम माधव के शहर भेजने के इंतजाम और पढ़ाई में खर्च हो गई।

सरजू की फसल में भी अब वह दम नहीं रहा था। कभी बारिश जो तांडव करती तो असमय गेहूं की फसल बर्बाद हो जाती और कभी तूफान आता तो मक्का की फसल चौपट कर जाता।

कभी आया सूखा उसकी खड़ी फसल का दम ही निकल जाता... यह साल भी कुछ ऐसा ही था... इंद्र देवता ना जाने कौन सा बैर निकाल रहे थे.... जतन से लगाई फसल सूखी जा रही थी।

जो सरजू कभी कंचन उगाता था आज फसल के लिए बीज और खाद के लिए ऋण के बोझ से युक्त था.... घर गिरवी रख दिया था तो हर हाल में इस बरस फसल की पैदावार उसे चाहिए ही चाहिए थी.... पिछले फेर की फसल तो पहले ही महाजन ब्याज में खा चुका था... और इस साल की फसल अगर चौपट हो जाएगी तो वह उसका घर भी लील जाएगी।

आसमान ताकता रहता सरजू अब बावला हो गया था.... एक हफ्ते तक वह वही खेतों में ही लोटता रहा.... जगह-जगह से नाली खोदता कि कैसे ही तो , कहीं से या तालाब से पानी उसकी फसल तक पहुंचे जाए.... उसका यह हाल देखकर उसकी मां और मंगला बहुत परेशान थे.... बूढ़ी दादी को सहारा देकर मंगला खेत तक भी लाई थी ....लेकिन दादी पौत्री की सरजू को घर ले जाने की सभी कोशिशें सरजू की हठधर्मिता के आगे परास्त थी... अपनी सुध बुध खोया सरजू बड़ी मुश्किल से मंगला के हाथों से कुछ निवाले खा और फिर खेतों की तरफ दौड़ जाता।

मंगला ने डाकखाने के फोन से माधव को सरजू के हालत की खबर कर दी थी.... सुनते ही अपनी सपनों की दुनिया में लीन माधव जैसे वर्तमान में आ पटका था.... अच्छी नौकरी लग जाने के बाद भी उसने कभी गांव की तरफ रुख नहीं किया था... बचपन में अपने पिता के संघर्ष का स्मरण उसे अंदर तक हिला गया था।

आज माधव गांव लौट रहा था ...संध्या हो चली थी, दूर डूबते सूरज से आकाश रक्तरंजित हो चला था । गोधूलि से आकाश मृदामय हो गया था। पक्षियों की तीव्र चहचहाट से ऐसा लगता था कि उनका समूह भी माथव की भांति अपने गंतव्य पर जाने को विकल थे।

   

 पूरे छः बरस बाद घर लौट रहे माधव को छःव र्ष अंतराल युगों समान लग रहा था। घर तक कच्ची सड़क पर गाड़ी न जाने पर वह उसे गांव जाने वाली सड़क पर ही छोड़ आया था और अब वह एक किसान की बैलगाड़ी पर सवार था।

कुछ किसान अपने कार्य निवृत्ति के बाद घर की ओर प्रस्थान कर रहे थे और कहीं अभी भी खेतों में अनाज की ढेरियां बन रही थी। दूर से देखने पर प्रतीत होता था मानो सर्वत्र कंचन बह रहा था.... वह कैसे इस कंचन की आभा से दूर भाग गया था स्मरण कर उसे ग्लानि हो रही थी... कितनी बार सरजू ने उसे फोन करके गांव वापस आने को कहा था.... पिता कितनी पीड़ा से गुजर रहे थे वह कैसे ना समझ पाया.... आँख से निकलते आँसू सारे दृश्य को धुँधला कर रहे थे।

उसकी बाल स्मृतियां अब दूर छिटपुट दिखते तारों की तरह प्रज्जवलित हो रही थी।

माधव पिता को ऋण मुक्त करा दादी मंगला और सरजू को हमेशा के लिए शहर ले जाना चाहता था.... मंगला के साथ वह जब खेत पहुंचा तो विक्षिप्त हो चले सरजू को देखकर उसका कलेजा मुंह को आ गया।

वह सरजू से लिपट कर बहुत देर तक रोता रहा.... लेकिन सरजू तो जैसे अपनी चेतना खो बैठा था..... सूनी आंखों से वह माधव को देखता ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जैसे वह माधव को पहचान नहीं पा रहा था.... माधव उसे अपनी बाहों में भर कर घर तक ले गया।

अब माधव अपने उसी घर में था जहां दादी अपने कच्चे चूल्हे पर पहले की भांति रोटी बना रही थी, अपने पिता की कमर उसे कुछ उम्र कुछ ऋण के बोझ से झुकी जान प्रतीत होती थी।

माधव का दर्द अब चरमोत्कर्ष पर था, जो किसान पूरे राष्ट्र के लिए भोजन का प्रबंध करता है उसका यह हाल क्या उचित है?

खाना खिलाकर उसने सरजू को खाट पर सुला दिया और पंखा झलने लगा।


एक सप्ताह रहते हुए उसने अपने पिता का सारा ऋण चुका दिया.... दादी और मंगला से सलाह करके उसने खेत और जमीन भी बेच दिए थे.... कुछ भी समझ पाने में असमर्थ सरजू बस सूनी आंखों से सारी प्रक्रिया होते देख रहा था... उसकी निगाहें अब भी आसमान पर लगी हुई थी।

कानूनी प्रक्रिया निपटाने माधव सरपंच के साथ दफ्तर चला गया... लौटने पर उसने घर में सरजू को अनुपस्थित पाया।

मंगला और दादी को भी नहीं पता था कि सरजू कहां गया था.... वह उनसे नजर बचाकर कब गायब हो गया था उनको पता ही नहीं चल पाया.... अब माधव दोनों के साथ बेतहाशा खेत की तरफ भाग रहा था।

अचानक बादल घिर आए थे .... खेत तक पहुंचते-पहुंचते हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गई थी।

पेड़ से टेक लगाए सरजू खेत में बैठा था.... पास जाकर देखा वह मुस्कुराता ऊपर देख रहा था.... माधव ने उसे हिलाया वह गिर पड़ा... अब माधव के रोते हाथों में सरजू का शरीर था और उसकी आत्मा मेघ से दौड़ लगाती बारिश की बूंदों को आत्मसात कर रही थी।



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