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ज़ख्म

ज़ख्म

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वक़्त के दिये जख़्मों को अब तुम भर जाने दो

वो जो जा चुका है छोड़ कर, तुम भी उसे जाने दो।


ये जो कैद कर रखा है खुद को इस चारदीवारी में

खोल दो ये खिड़कियां, थोड़ी धूप को आने दो।


क्यूँ बाँध रखा है तुमने आँखों में सैलाबों को

जहर बन जायेंगें ये, इन्हें खुल कर बरस जाने दो।


माना कि रात भारी थी मगर सुबह तो सुनहरी है

सुबह की ठंडी ओस में तुम खुद को भीग जाने दो।


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