ज़ाहिर है..
ज़ाहिर है..
बूंद बूंद कर दर्द रिस रहा हो
पावँ छालों से भरे हों
पर रुकना इज़ाज़त मे न हो
ज़ाहिर है मैं मुस्कुरा नहीं सकती
न नाम हो न पहचान हो
गुजरूं यूं लगे हूँ ही नहीं
तन्हाई कि काली परछाईं, जो जुड़ चुकी हो अस्तित्व से
ज़ाहिर है मैं मुस्कुरा नहीं सकती
खामोश हूँ , बेज़ुबाँ समझते हो
सहती रही ,तो कमज़ोर हूँ
सालों से पाखंड और झूठ की सलाखों में कैद हूँ
ज़ाहिर है मैं मुस्कुरा नहीं सकती
जिस आग का डर बचपन से मन में हो
खुद को उसी में झोक कर जीवन का अंत हो
इस दोगलेपन से रूह भी काँप चुकी है
ज़ाहिर है मैं मुस्कुरा नहीं सकती
तुझसे जुड़ती हूँ हमदर्द समझ
तुम मन को सीने पर थोड़ी ज़गह देते हो
पर व्यतित्व मेरा तुमसे अलग ,तो कहीं पीछे छोड़ देते हो
मैं फिर हूँ तन्हा
तुझे भी उस अधाय्य में जोड़ रही हूँ
आँखों में अब कोई रस नहीं
तुम पूछते हो मैं खुश नहीं ?
मैं खुश तो बहुत हूँ
पर ज़ाहिर है, मुस्कुरा नहीं सकती।