यह दूरी
यह दूरी
कैसे सहूँ
तुमसे यह दूरी
अब और सहन
मुझे नहीं है यह दूरी,
तड़पूं ऐसे जैसे
पानी बिन प्यासा तड़पे
और तड़पे
आयातित शीशे में
कैद एक मछली,
जो है समुद्र से
मिलने को लालायित
उसे है अपनी बेबसी पर क्रोध
उस शीशे में लगाती
चारों तरफ चक्कर
हांफती और थक हार जाती
फिर नहीं मिल पाती
समुद्र रूपी अपने प्रिय से,
और सहती हुई यह दूरी
उस क्षुद्र शीशे में
सज देती है अपने प्राण
प्रिय!
मुझे असह्य है
यह दूरी तुमसे
तुम तोड़ दो
उस शीशे रूपी बंधनों को
समाज के द्वारा बनाये
संकीर्ण नियमों को
कर दो दर किनार
अंत कर दो इन दूरियों को।
आओ चलें
फिर बैठे किसी पेड़ के नीचे
हरी-भरी घास पर
और करें महसूस
उस निश्छल निर्मुक्त पवित्र पवन को
जो कर देते हमारे मन को
प्रेममय का भवसागर।

