यादों की अलमारी
यादों की अलमारी
आज फिर उन्हीं यादों की
अलमारी को मैंने खोला
थी जिसमें एक पोटली
अनगिनत महकी हुई फूलों से भरी
एक - एक कर गांठें खोलता गया मैं
यूं लगा
छू रहे थे मेरे हाथ तुम्हारे हाथों को
महसूस करता रहा तुम्हारी छुअन को
मेरी आँखों में खिल रही थी मुस्कान
तुम्हारी
लुका छुपी करती हुई तुम्हारी नज़रें
कभी छूतीं मेरी आँखों को
कभी ओझल हो जाती आँखों से
तुम्हारा रूठना मेरा मनाना
मान कर फिर रूठ जाना
मेरी छोटी सी ग़लती पर भी
मुझे जमकर डांट पिलाना
और मुझे डांट कर ख़ुद ही
बुरा मान जाना
साये की तरह साथ ही रहतीं हमेशा
जाने क्या रिश्ता था तेरा मेरा
यूं हर घड़ी साथ साथ रहना कोई
खेल था
या कलयुग के राधा कृष्ण का मेल था
समझ नहीं पाया अब तक इस
रिश्ते को
निरंतर कई सवाल जवाब से चलते
हैं मेरे मन में
शायद! मेरा मन
तुम्हारा घर था कोई किराये का
चंद रोज़ रहीं और चल दीं
फिर किसी और किराये के मकान
में रहने के लिए
तुम साथ नहींं
मेरे आस-पास नहीं
फिर भी जाने क्यों
तुमसे जुदा नहीं हो पाता
हर पल महसूस करता हूं
अपनी ज़िंदगी में तुम को ही जीता हूं
एक जुड़ाव सा लगता है
तुम्हारे मन से मेरे मन का
समेटता हूं, सहेजता हूं,
बांध कर रखता हूं उस पोटली को
यादों की उसी आलमारी में
जिसे मैंने खोला था।