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Salil Saroj

Drama

4  

Salil Saroj

Drama

याद आता है

याद आता है

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मैं जब शाम को दफ्तर से घर जाता हूं

कार की कतारों में

प्लास्टिक से चेहरों को निहारता हूं,

तो मुझे पगडंडियों पर गजगामिनी सी

चलती बैलगाड़ी नज़र आती है,


उसकी घंटियों में भरतमुनि के

नाट्यशास्त्र का संगीत उभर आता है,

नई नवेली आती हुई किसी दुल्हन की

हिलती नथुनी सज जाती है,


पहियों की मद्धम गति में

जीवन का ठहरा कुछ पल मिल जाता है,

तब मेरा गांव मुझे याद आता है।


जब मैं मेरी बेटी को

स्विमिंग पूल में खेलता देखता हूं,

तो मेरे सामने से गाँव की नदी गुज़र जाती है,

सद्यास्नाता के अनछुए बदन को

देखकर वो खिल जाती है,


नंग-धरंग बच्चों को देखकर

छुईमुई सी शरमा जाती है,

पूरे गांव की जीवनदायिनी बता कर

खुद पर अकड़ जाती है,

छठ जैसे त्योहारों में किसी बच्ची सी सज जाती है,

तब मेरा गांव मुझे याद आता है।


जब मैं दोस्तों को धूप में तरबतर हांफता देखता हूं,

तो कुआं के किनारे हरा भरा बूढ़ा बरगद

जवानी पे उतर आता है,

पक्षियों के शोर और कोलाहल से वो तर जाता है,

गिलहरी की शरारतों और

कोयलों की कूक से भर जाता है,


उसकी भींगी छांव में

प्रेयसी के छुअन का असर आता है,

लंबी-चौड़ी विशाल भुजाओं में लाल हुए

सूरज को कस जाता है,

तब मेरा गांव मुझे याद आता है।


जब मैं रेस्तरां का महंगाई से

कुप्पा हुआ मुंह देखता हूं,

तो मुझे कंसार में रेत पर नाचता याद

चना का हश्र आता है,

मक्के की भुनी सौंधी बालियां

क्या गज़ब ढाती हैं,

सोती हुई खेतों में मिट्टी की दरी पर

छिमरियां बिछ जाती हैं,


मंदिर की घंटियों और प्रसादों में

सुधापान की जाती है,

मिट्टी के चूल्हे पे मां के हाथ की बनी रोटी से

भूख और सुलग जाती है,

तब मेरा गांव मुझे याद आता है।


जब मैं बैग, थरमस, टिफ़िन, रैकेट और किताबों में

दबता बचपन देखता हूं,

तो मुझे मां की तरह पुचकारता,

मेरा पाठशाला सँवर जाता है,

उसके आदर्श और नैतिकता के पाठ से

मेरे अंदर का शैतान डर जाता है,


होमवर्क का जोर नहीं,

फीस भरने की होड़ नहीं,

उसके प्रांगण में दौड़ता मेरा वर्तमान थम जाता है,

तब मेरा गाँव मुझे याद आता है।


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