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Vikas Shahi

Tragedy

3  

Vikas Shahi

Tragedy

व्यथित अंतर्मन

व्यथित अंतर्मन

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सहम जाता हूँ अक्सर

भयावह उस स्वपन पर

आधी रात डरकर

उठ जाता कम्पन पर


मेरी आहट मुझसे पूछती

हारा हुआ अधम कहता

हृदय घाव कुरेद जाता

स्वयं से ही हसद जाता


जीवन के कालचक्र में गुम गया

व्यथित अंतर्मन में घूम गया

समय से आघात जो पाया

दर्पण वो कभी भूल न पाया।


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