'मानव चेतना'
'मानव चेतना'
अंतः करण में जलती अंगार ज्वाला
धधक रहा अंदर चित का शांत वन
सैलाब बन के दरिया में बह जाने को
अश्क झील तोड़ने पर आतुर नयन
जाति - जाति भेद का भाव असह्य
धर्म - धर्म के विष से मन है त्रस्त
एक ही सृष्टि है एक ही है ईश्वर
अनेक मानव से मानवता का अस्त
गरीबी की व्यथा धूल में लोट रहा
अमीरी का घमंड उच्च कोटि है
अनाजों की पहचान क्या है
तेल - घी लेप से बटा तो रोटी है
लड़का नादान घर का गौरव है
लड़की तो दोषी परायी धन है
माँ के गर्भ से ही जन्म है दोनों
अंतर भाव से पापी तो मन है
ज्ञान धारा जब ढका तन-मन को
परिपक्व समझ से उठी वेदना
तरक्की तो बस काल कर रहा
विभक्त हो रहा मानव चेतना
