वर्ण व्यवस्था
वर्ण व्यवस्था
भारत भूमि , सनातन भूमि
सनातन धर्म , पुरातन मर्म
धर्म ये युगों से प्रवाहित है
वेदों की गंगा में समाहित है।
रुची धर्म में मेरी
मैं खोजने सत्य चली
इतिहास की पुरानी गलियां
मानव मन की गहराइयां,
वैदिक युग की परछाइयां
लेकर सोई थी सिरहाने मैं ।
सोई तो थी इस काल में
नींद टूटी ऋग्वैदिक काल में ।
संसार यह मेरे लिए था नया
धर्म यहां कर्म से था बंधा।
परिचय मानव का नाम केवल देता न था
सम्मान समाज में काम से ही मिलता था ।
जिसकी जैसी बुद्धि ,वैसी उसकी वाणी
कार्य जिसका जैसा ,वर्ण उसका वैसा
शास्त्र को जिसने शस्त्र बनाया
ब्राह्मण वो कहलाया,
शस्त्र जिसका शौर्य बना
क्षत्रिय वो कहलाया ,
तराजू और बटखरे की कहानी
जिसने कह डाली
जीविका के रूप व्यवसाय की नींव डाली
वैश्य उसे नाम मिला ।
यही थी उस काल के प्रारंभ की कहानी ।
समय जो थोड़ा आगे बढ़ा
एक वर्ण नया मानव ने स्वयं गढ़ा ।
जिसने बुद्धि का उपयोग किया ना
शस्त्र में उसका मन रमा ना
शास्त्र रहते भी वो रहा अज्ञानी
पर- कार्य करने को ही पहचान
अपनी बना डाली ,
मानव ने ही स्वयं मानव की नयी श्रेणी बना डाली ।
बड़ी अनोखी, अचरज भरी है उसकी कहानी
श्रम ही उसका जीवन बना
आज्ञा पालन उसका धर्म बना
कहलाया वो शुद्र,
दारुण अवस्था उसकी
उसने सहज स्वीकारी ,
मन मस्तिष्क में उसने
पराधीनता अपना ली ,
किया पीढ़ियों में प्रवाहित उसने कर्म ये
एक नये वर्ण की स्थापना मानव ने स्वयं कर डाली।
