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Ghanshyam Sharma

Abstract

3  

Ghanshyam Sharma

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लपटें

लपटें

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मुझ से लपटें

उठ रही हैं,

आग हूँ मैं ,

ज़िंदा आग

आग भी भला

कभी मरती है ?

वह तो शाश्वत

ज़िंदा है

किसी न किसी

में हमेशा ।


सब कहते थे,

धूल है, राख है,

खंडहर है,

रेगिस्तान है ,

अरे ! श्मशान है

कुछ नहीं है

फिर यकायक

एक दिन, भयानक

तीव्र, विशाल

अद्वितीय, लपटें

लपटें उठ रहीं थीं।

जल रहा था मैं ,

प्रह्लाद की तरह

मेरा बाल भी

बांका न हुआ,

इस प्रचंड

ज्वाला में।


सच ये आग

ये लपटें

मुझसे ही

उठ रहीं थीं।

करोड़ों सूर्यों

के समान,

ऊर्जा-उष्मा-

ताप-तेज

था मुझ में,

मुझे अनुभव

होता था।

यह उत्साह

की लपटें थी

आशा की

लपटें थी

ये नये सवेरे की

नयी उमंगों की

लपटें थीं।

मैं उपकृत

हुआ माँ।



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