बचपन की चिरैया
बचपन की चिरैया
भूरी मटमैली
प्यारी छोटी गौरैया
मेरे बचपन की नटखट छोटी चिरैया,
फुदकती कूदती
हरदम मेरे आंगन में,
चंचल शोख मंडराती
इधर उधर खेत खलिहानों में।
जब भी उसको छूना चाहूं
चीं चीं कर फुर्र उड़ जाती है,
पर रिश्ता अटूट था उसका मुझसे
रोज आंगन में फिर आ जाती है
मां के बिखेरे चावल,
और अनाज के दाने चुगने।
अक्सर दीवार पर लगे आईने में
अपनी हमशक्ल से चोंच लड़ाती है,
पेड़ों के झुरमुट में
बहुत सारे घोसलें बनाती है,
चीं चीं चीं का शोर
हरदम खूब मचाती है,
गर्मियों की दुपहरी में
अपने झुंड के साथ,
मुंडेर की मटकी से पानी पी जाती है।
नहाती भी खूब है पानी में
बहुत बेफ़िक्री से,
पर अब रूठ गई मुझसे
हम सबसे,
जब से हम बड़े हुए
बदल गए हालत,
प्रकृति का ऐसा दोहन किया हमने
छोड़ दिया उसने हमारा साथ।
अब उसने
चहचहाना भी छोड़ दिया
दाना चुगने आंगन में आना छोड़ दिया,
बचपन की मेरी छोटी चिरैया
एक भूली बिसरी कहानी बन गई,
अब नहीं दिखती
हमे अपने आस पास
ना जाने रूठ के वो कहां गई।
बढ़ती आबादी
प्रकृति का असीमित दोहन,
ऊंची - ऊंची इमारतें
ऊंचे मोबाइल टावर,
मेरी छोटी चिरैया के लिए अभिशाप बन गए
हमसे रूठने का ये बड़े कारण बन गए।
मगर अब भी नहीं चेते हम
तो वह बीती बात हो जाएगी,
आने वाली पीढ़ी के लिए
गूगल हो जायेगी ।
