ओ चित्रकार
ओ चित्रकार
ओ चित्रकार ओ चित्रकार
कभी थोड़ा कभी अपार
अपनी कूंची के रंगों से
रंग दो धरती को फिर एक बार
ओ चित्रकार ओ चित्रकार
कभी मापे सुंदरता अंगों से
कभी चमड़ी के इन रंगों से
फिर नित होते इन दंगों से
करती मानवता अब चीत्कार
ओ चित्रकार ओ चित्रकार
दुख कैसा ये छाया है
पल कैसा ये आया है
है किसकी ये माया है
सुन ले तू मेरी पुकार
ओ चित्रकार ओ चित्रकार
हर हृदय से, हर दृष्टि से
हर मानव से, इस सृष्टि से
अपने रश्मित रंगों की वृष्टि से
करो दूर ये अंधकार
ओ चित्रकार ओ चित्रकार
कर दो गीला हर तन को
होने दो सीला हर मन को
फलने दो जीवन वन को
हो रंगों की फिर वही फुहार
ओ चित्रकार ओ चित्रकार।
