अजीब दस्तूर
अजीब दस्तूर
तमाम गुनाहों की कभी
इस जहाँ में
कोई माफी नहीँ होती।
दिल दुखाने की कभी,
कोई सज़ा काफी नहीँ होती।
आंखों से बहते अश्कों की,
कीमत भी कोई क्या लगाए।
जिस आँख से बहे,
है उसके लिए खारा पानी,
और जिसके लिए बहे,
उसके लिए कीमत बेमानी।
ये दुनिया भी लगती है कभी
एक सट्टे बाज़ार सी
ज़रा सोच के दिल हारिये।
कोई दिल हार के भी,
जीत जाता है यहाँ
और किसी की जीत में भी,
लिखी रहती है ताउम्र
बस उसकी हार ही।
अजीब से दस्तूर हैं
इस जहाँ के ज़नाब
जो खुद से कुछ हो
तो दिया गलती का नाम
और माफी से ही
कर लिया
सारा किस्सा तमाम।
वही जो हो किसी और से
तो उसको दिया गुनाह का नाम
सख्त सज़ा दिए बगैर
न होने दिया किस्सा तमाम।
बदल जाती है यहाँ अक्सर
हकीकत भी,
सहूलियत को देखकर।
बदल जाते हैं
नियम कानून भी
सामने वाले की
हैसियत देख कर।
