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vishwanath Aparna

Abstract

4  

vishwanath Aparna

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*इत्तफाक*

*इत्तफाक*

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क्या ऐ इत्तफाक था

अचानक तुम बीस बरसों बाद नज़र क्या आए

मैं मुझमें बीस बरस की कमसीन तलासने लगी

मैं खुद को संवारने लगी।


वो रास्ते वो गलियां जहां तुम पीछा करते थे

याद आने लगी

राहों से तेरा गुज़र जाना

वो हल्का हवा के झोंको सा बह जाना

फागुन की होरी का मुझे भा जाना


तुम्हें मेहसूस करने को वो पलकों

का आपस में मिल जाना

तुम्हारा रोज़ यूं सड़कों पर दिख जाना

क्या वो इत्तफाक था।


ऐ तो अब जाकर मैंने जाना

सिद्दत से तुम्हारा एक छोटा सा कागज का टुकड़ा

गुलाबी से लिफाफे में

जिसमें कुछ शब्द और तस्वीर उकेरे धै तुमने

मेरे हाथों में पकड़ा जाना

वो इत्तफाक नहीं था।


सबसे नज़रें बचाकर तुम्हें ढूंढना

लिफाफे को किताबों में दबाकर

चोरी-छिपे उसे पढ़ना

वो भी इत्तफाक नहीं था।


फिर अचानक से तुम्हारा

सड़कों और गलियों में नज़र ना आना

वो सिलसिला टूट सा जाना

मेरी नज़रों का तुहारी झलक

पाने को भटक सा जाना


दिल में उठती गुबार और

कशमकश का किसी को बता नहीं पाना

क्या वो इत्तफाक था।


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