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vishwanath Aparna

Abstract

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vishwanath Aparna

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यह कैसे पात्र हो तुम ?

यह कैसे पात्र हो तुम ?

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तुम गहरे भावों को

शब्दों में

तलाशते 

बारीकियों से तराशते

फिर छूते उन्हें

नर्म गुलाबी हाथों से

रुप देते

उन शब्दों को

और फिर बड़े

नज़ाकत से 

एहसासों की 

फसल उगाही

करते हुए

रच देते हो

सबसे सुंदर कविताएं

और साहित्य की अनसुनी

विधाओं में रचनाएं

एक उफान

एक सैलाब के साथ

बिना आहट के

कमान से 

छोड़ते हो तीर 

जो,

बयां करती किसी

स्त्री की खूबसूरती ..


तुम एक

विशाल विस्तृत अशेष

अछोर

शब्दकोश हो

कि संभव है

हर स्त्री

प्रेम कर बैठे

उन शब्दों के

सैलाब से

उन शब्दों के

मुलायमियत से

उस स्याह से भी

जिससे तुम

खेलते हो

होली और

कुछ पन्ने मुस्कुरा

उठते हैं ..


मगर !

सब खोखलापन

बनावटीपन 

दोहरी मानसिकता का

आवरण ओढ़े

आत्मा विहीन

तुम,

एक बहेलिया

जो,

वर्णमाला की 

जाल बुन 

क़ैद करते हो

किसी की संवेदनाओं को

जीर्ण-शीर्ण करते

और खेलते

उनके जज़्बातों से

और फिर

विलुप्त हो जाते हो

एक दिन

किसी विलुप्त हुए

भाषा की तरह..


सुनो

हे कलयुगी कन्दर्प !

कितने संकीर्ण हो तुम 

कैसे जी

पाते हो ?

सोच इतनी 

कसाद तुम्हारी

यह कैसे पात्र हो तुम ?

अंदर से कुछ

बाहर से कुछ और

क्यों हो तुम ?



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