वृक्ष की व्यथा
वृक्ष की व्यथा
कुल्हाड़ी से वार न करो
देखो मुझपे प्रहार न करो
काष्ठ फ़ल फूल छांव तुझे अर्पित
मैं तरु हूं परसेवा में सदा समर्पित
पर्यावरणीय संतुलित मुझसे ही
सम्पूर्ण प्रकृति को करता हूँ गर्वित
काट मुझे ऐसे जार-जार न करो
देखो मुझपे..
अस्तित्व वनों का है मुझसे ही
मैं ही तो शुद्ध पवन का दाता
मुझसे तू और तुझसे मैं जिंदा
जग से प्यारा अपना ये नाता
मानव! यूँ तो मेरा संहार न करो
देखो मुझपे..
है मुझसे ही ये धरा सुशोभित
सभी प्राणी ही मुझसे पोषित
हो स्वार्थवश यूँ ज़ुल्म करो न
धरा हो जायगी तुझसे रोषित
नष्ट जीवन का आधार करो न
देखो मुझपे..
