श्रृणी
श्रृणी
नख- शिख भरे विकार हमारे, किस मुख से हम तुम्हें पुकारें।
तुम तजि किसकी शरण गहें, कटे यह जीवन अब किसके सहारे।।
डूबती नैया बीच भंवर में, कृपा कर इसको पार उतारो।
उलझती लहरें मारे थपेड़े,थमती साँसे अब तुम्हीं संवारो।।
जिये जा रहा था अपनी ही धुन में, न थी कोई मंजिल न ही किनारा।
आए जिस पल से मेरी जिंदगी में, प्रेम भर दिया जीवन में सारा।।
द्वार पर तुम्हारे शीश झुकाता,आर्त हृदय से तुमको पुकारता।
सुन पुकार द्रोपदी लाज बचाई, तुम ही हो मेरे मोक्ष प्रदाता।।
मात-पिता ने संसार दिखाया, तुमने ही जीवन का पाठ पढ़ाया।
काम, क्रोध,माया संसार ने दीन्हा, तुमने भव-रोग मुक्त है कराया।।
सत्य की आंच लगाई मन में, प्रेम प्रफुल्लित हुआ तन-मन में।
साधना सरल,सुगम बदलाकर,आत्मानुभूति फैली जन-जन में।।
आत्मज्ञान ही जीवन का मकसद, प्रत्यक्ष दिखाया सबको पल में।
"नीरज" "श्रृणी" समर्थ गुरु का, चुका न सकता मूल्य इस जीवन में।।
