वृद्धाश्रम
वृद्धाश्रम
पूरा विश्व मना रहा था जब,
8 मई को मातृ दिवस,
सामाजिक पटलों पर मातृ भक्ति के,
संवादों का अम्बार लगा था,
मानों मातृ भक्ति का मनोभाव
एक ही दिन में,
उमड़ घूमड़ कर उद्वेलित हो रहा था।
साल भर जिस “अनपढ़” माँ को,
कोई पूछता तक नहीं,
बस खटती जाती पूरा दिन,
चूल्हे चौके में,
अपनी जिसे चिंता तक नहीं,
खाने की जिसे कोई सुध नहीं,
कल उसके लिए क़सीदे पढ़े जा रहे थे।
क्या इसी एक दिन,
होती है माँ महान?
और बाकी दिन,
क्या माँ की नहीं कोई पहचान?
नहीं कोई ख़ुद का अस्तित्व?
जिस माँ ने रखा नौ महीने कोख में,
क्या यही है उसके सपनों का सोपान?
वृद्धाश्रम में बैठी वह माँ,
बात जोह रही थी कि,
कोई आएगा “घर” से मिलने,
एक दिन, कम से कम एक बार,
“माँ” कह कर बुलाएगा,
“घर” ले जाने की बात कहेगा,,
पर बेटे तो सभी मातृ दिवस मना रहे थे,
उनमें कई तो
वृद्धाश्रम में बैठी अपनी माँओं को
फिर जीते जी मार रहे थे,
माँ को माँ कहने में शर्म जो आती थी उन्हें,
“रिश्ता” जो जीते जी टूट गया था माँ से।
वह “अनपढ़” माँ बाट जोहती रही,
आँखे पथरा गई,
शरीर में मानों बल नहीं था,
किसी ने सांस रोक ली हो,
इसी तरह शाम हो गई।
तभी बाहर एक गाड़ी आई,
बाहर दरवाजे के पास रुक गई।
कुछ युवक युवती उतरे,
साथ में उनके कुछ सामान था,
हाथ में किसी क्लब का झंडा।
वृद्धा ने टकटकी लगाकर देखा,
शायद उसका बेटा भी था,
मन ही मन बड़ी ख़ुश हुई,
शायद “घर” जाने की घड़ी आ गई।
सभी अंदर ही आ रहे थे,
“हाँ यह तो मेरा ही बेटा है”
वृद्धा ख़ुशी से मन ही मन झूम उठी।
सभी मेहमान,
वृद्धाश्रम की महिलाओं को,
खाना बाँट रहे थे,
फोटो खिंचवा रहे थे,
तभी उस वृद्धा के बेटे की आवाज़ आई,
“कैसा जमाना आ गया है,
लोग अपनी माओं को क्यों
इस तरह वृद्धाश्रम भेज देते हैं,
क्यों अपने साथ नहीं रख सकते?
मेरी माँ तो जब तक “जिन्दा” थी,
हम सब साथ रहते थे,
अब तो माँ “नहीं रही”,
पिछले दिनों ही “गुजर” गई,
पर माँ मेरे दिल में सदा रहती है”
लोग तालियां बजा रहे थे,
बेटा ख़ुश हो रहा था।
रोज मर मर कर जीने वाली वह वृद्धा,
आज कभी वापस न आने के लिए मर चुकी थी,
उसकी साँसे रुक चुकी थी सदा के लिए,
हाथ बेटे की ओर आशीर्वाद की मुद्रा में,
बेटा अनदेखी करके चला गया,
मरी हुई माँ को फिर मार कर चला गया,
और समाज के सामने रह गया,
एक यक्ष प्रश्न,
एक अनसुलझा “?” प्रश्न चिन्ह………..।
