वक़्त - पहचान अपनों की
वक़्त - पहचान अपनों की
ज़िन्दगी में जब बढ़ जाती है निराशा,
दब के रह जाती है मन में कई अभिलाषा।
टूट जाता है हर इंसान ऐसे मोड़ पे,
जहाँ गैरों से कम अपनों से हो आशा।
बोली जाती है जहां तरह-तरह की भाषा,
वहां मिलता है हमे अपनो से झांसा।
साथ जहां खड़े हुआ करते लोग,
हमारे फरमाइश से पहले सामने हाज़िर थे हमारे।
आज वक़्त में परिवर्तन क्या आ गया,
लोगों में बदलाव समय से पहले ही आ गया।
वो भी क्या लम्हे थे जब हम लोगों के साथ चला करते थे,
आज हम लोगों के साथ हो तो खला करते हैं।
यही है ज़िन्दगी की परिभाषा,
फर्क नहीं सपनों और अपनों में,
जिससे हमे होती है आशा।
