STORYMIRROR

Aishani Aishani

Romance

4  

Aishani Aishani

Romance

वो तुम थे..!

वो तुम थे..!

1 min
283


ओह! 


तो वो तुम्हारे अश्रु थे, 

जो काँधे पर मेरे पड़े हैं

तिल बनकर हर पल/


और मैं....! 

जाने क्यूँ खरोचती रही उसे

जब तब इक दाग़ समझकर

पर...! 

दाग़ होता तो कब का जख़्म बन गया होता.. 

ना सूर्योदय ख़त्म होता है

ना चंद्रास्त मिटता है

चलता रहता है यह सिलसिला

जन्म जन्मातर तक, 

या / 

यूँ कह लो युगांतर तक /

कैसे विस्मृत कर पाऊँगी मैं

उस अनोखी यामिनी बेला को! 

अद्भुत था हमारा वह मिलन! 


पर...! 

तुमने यह क्यों कहा कि

अपवित्र हो गयी थी मैं

तुम्हारे स्पर्श मात्र से..? 

नहीं..! कदापि नहीं..! 


हाँ...., 

ाँ.. यह सच है कि---

मैं तुलसी रख दिया करती हूँ

हर उस चीज पर 

जो अपवित्र हो जाती है/ या

जिसको बचाना हो अपवित्रता से..! 


किन्तु... 

हमारा मिलन साधारण नहीं था

स्पर्श भी नहीं किया हमने

एक - दूसरे को और 

बन्ध गये थे इक- दूजे के

प्रेम पाश में /

बन्धमुक्त हो गये थे हम..! 


पर.. !

ये क्या....? 

जहाँ शीतलता व्याप्त थी

वहाँ केवल उष्णता ही शेष...? 

ओह....! 


हमारी रुहें अब हमारी नहीं 

इक होकर पृथक थे हमारे जिस्म!..! 

विस्मृत तो नहीं कर सकी 

जी रही थी उस पल को

स्वयं में/ 

स्मरण कराकर पृथक कर दिया तुमने...!! 



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Romance