वक्त के हाथों मजबूर इंसान
वक्त के हाथों मजबूर इंसान
बचपन में जी पर अपना प्यार बरसाया,
अपने आंचल की छाँव में छिपाया,
आज उसी की विदाई पर फूल बरसाए,
वक्त के हाथों मजबुर इंसान ने ।
जिन कदमो को अपने आंगन में चलना सिखाया,
रेशम के धागों से सहलाया ,
आज उसी पे मन्नत की चादर चढाई,
वक्त के हाथों मजबूर बाप ने ।
जिसकी उँगली पकड कर ,
बुढापे की लाठी के सपने संजोए थे,
आज उसी को शमशान पहुचाया था,
वक्त के हाथों मजबूर पिता ने ।
जिस सीतारे को अपनी आखों का तारा बनाकर,
पाला था एक अभिभावक ने,
आज उसी की चिता को अपनी आँखो से जलता देखा,
वक्त के हाथों मजबूर इंसान ने ।