विरहन
विरहन
जी भीतर मोरे गहन उदासी और हिया बेदना भरी
मोरे लोचन भए मेघ ज्यूँ जावत हो झरना सा झरी।
मौन हुई मोरी कलम, लेखनी मैं कुछ भी लिख न पाऊँ
कैसे जीवन हो रहा व्यतीत है आ बैठ तोहे बतलाऊँ।
मुख सो मेरे उड़ी हँसी मैं आँखियां सों नींद गंवाई
राह तकत मोहे बरसों बीते और आँखियां भी पथराई।
जो हो कोई जतन नीलम दो हमको भी बतलाए
जित देखूँ उत 'कान्हा' दीखे पर पास न मेरे आए।