विरासत
विरासत
कभी कभी मुझे लगता है की मैं अपने सारे दुःखों को बाँट दूँ....
मै असमंजस में पड़ जाती हूँ......
किसे बाँटू..
कैसे बाँटू...
कोई लेगा मेरे दुःखों को?
कोई क्यों लेना चाहेगा मेरे दुःखों को भला?
फिर मुझे ख़याल आता है की यह सही नहीं होगा......
क्योंकि वे तो मेरे दुःख है.....
नितांत मेरे........
जो मुझसे ही जुड़े हुए है......
जो मुझसे ही जुड़े रहना चाहते है......
ये दुःख हम औरतों को विरासत में मिले है......
माँओं, दादियों और नानियों जैसी उन तमाम औऱतों से.....
लोगो के हिसाब से बेहद गैरजरुर्री से....
क्योंकि उन्हें लगता है की क्या कमी है इन औरतों को ?
इनके पास घर है, कपडे है, गहने है....
क्या नहीं है इनके पास ?
शायद वे सही कहते होंगे .....
लेकिन वे क्या जाने की गहने,कपडे में ही सारा सुख नही होता है .....
इन विरासत में मिले और साये जैसे मेरे दुखों को मै किसी और के कैसे हवाले कर दूँ?
वह भी किसी ग़ैर के हवाले?
क्या कोई ग़ैर इनका मेरे जैसा ध्यान रख पायेगा भला?
कदापि नहीं........
नहीं ........
मेरा मन मुझे कहता रहता है मेरे इन दुखों को किसी के हवाले करना एहसान फ़रामोशी होगी......
क्या मैं एहसान फ़रामोश हूँ?
नहीं .....
और ना ही मुझे एहसान फ़रामोश बनना भी है......
मैं ऐसे ही खुश रह लूँगी मेरे इन दुखों के साथ.......