विडंबना या अनहोनी
विडंबना या अनहोनी
आपा-धापी की इस ज़िन्दगी में अपने आप को ना जाने कितने धप्प लगे,
थप्पड़ और थपेड़े खाते खाते ज़िन्दगी के, ना जानें कितने कश लगे।
दुविधा और उलझन ने लगाया ऐसा जाम जिसमें से निकलने के लिए यारों के साथ ना जानें कितने जाम लगे,
ज़िन्दगी की गाड़ी को सुचारु रूप से दौड़ाने की कशमकश में अनगिनत अपने तो कहीं पीछे ही छूट गए।
सुनते थे जो गीत मधुर वो कर्ण अब भीड़ और वाहनों का शोर - शराबा, हल्ला- गुल्ला सुनते-सुनते थक गए,
जीवन की पटरी पर दौड़ते दौड़ते खुद हम गुमशुदा हों गए।
ये कैसा अँधियारा छाया है आँखों के सामने, जला लो कितनी भी बत्तियाँ पर अँधेरा ये छँटता नहीं,
जो रास आते थे शुद्ध व मनमोहक वातावरण के नज़ारे, अब वो नज़र आते नहीं।
पहले ऐसी बेचैनी ना थी, ना था दिल व्याकुल इतना तब,
रिक्शा और बस के धक्के खा कर भी प्रसन्नचित्त रहते थे सब।
धुएं का जो उबार दिखता है अब, पहले ना उसका नामोनिशान था,
गैस चैम्बर तो बस कारखानों में ही देखने को मिलता था।
हरियाली दिखती थी कभी खेतों में, चहुँ ओर नारंगी सतरंगी पुष्पों से मनोहर मनोहर, सतरंगी - सतरंगी,
जहां आज दिखती हैं बस इमारतें ही इमारतें, ऊँची -ऊँची बहु- मंजिली।
औद्योगिक और वैज्ञानिक दृष्टि से विकास तो हमने भरपूर किया,
काया पलट कर दी दुनिया की,
पर पलट के जो देखा पीछे एक बार, विनाश और सर्वनाश की झलकियों से भर गयीं नज़र, भर गयीं हर दृष्टि।।
अवलोकन करने लायक़ अब शेष रह क्या गया,
कामयाबी का अनुसरण करते-करते सभी का काम:-तमाम हो गया।
धुंधली होती जा रही हर सीमा, धुंधला आसमान हों गया,
विडंबना कहें या कहें अनहोनी, आधुनिकरण ने ज़िन्दगी का ऐसा बेड़ा गर्ग कर दिया।