विभावरी
विभावरी
है तमस रूप सृष्टि का विभावरी
शांत क्लांत निस्तब्ध बावरी।
फैला निज श्यामल आंचल को
समाती संसृति के कोलाहल को।
नित नीरव निद्रा नीड़ सजाती
फिर सपनों की दुनिया में ले जाती।
मिटा दिनभर की अमिट थकान
लाती कण-कण में नूतन बिहान।
करते क्रीडा चांद तारे जिसकी बाँहों में
अमृत बरसाती चांदनी उसकी राहों में।
है झुरमुट में सुर-संगम समाया
तंद्रा ने फिर अनहद नाद सुनाया।
पर स्वीकार्य कहाँ ये राज निशा का
कायम इससे ही अस्तित्व उषा का।
करते दृष्टित बस ध्वांत अंधेरे को
देख नहीं पाते छिपे समष्टि सवेरे को।
त्याज्य अत्याज्य सभी समाए दामन में
खेले आंखमिचौली तम-जुन्हई प्रांगन में
भाषित विभा से ही दिवा की गरिमा
पर घनाच्छादित रहती स्वतःकी महिमा।
फंसी काल-चक्रव्यूह में ये जगती
होकर दिन रात से हीे सदा गुजरती।
हेतु यही दीप्त उजाले की पहचान
रहती स्वयं इस सच से अनजान।