वह सुगंध
वह सुगंध
देता वो क्षणिक जीवन में अपना अपनत्व
सहर्ष स्वीकारता अपने दायित्व का महत्व
सुगंध श्रृंगारित होता वह प्रेम वन उपवन में
सुशोभित होता धरा अंबर के गुलो चमन में
रहता संघर्ष अनवरत उसका कांँटो के बीच में
सौम्यता से आकर्षित होता ध्यान सबके खींच में
यातनाएंँ हज़ार सहता कली से पुष्प बनने में
खिल उठता वह जंग जीतकर व्यक्तित्व के निखरने में
कभी तैर रहा गंगा में दीए की टिमटिमाती लौ के साथ
प्रसन्न होता वह सांझ सिंदूरी क्षितिज दूर मिलने के साथ
मुस्कुराता कभी प्रभु ईष्ट के चढ़कर चरणों में
छंद गाता खिलखिलाकर कभी हरित बीच पर्णों में
करता वह अबूझी यात्रा कभी अपने माली की अंजुरी में
अरमानों के साथ सजता वह दुल्हन के केशों गजरे में
चार चांँद लगा देता वो बिंदिया मेहंदी संग उसके कजरे में
खामोश होकर वो अल्फ़ाज़ भी देता गज़लों को बनने में
रौनकें सज जाती इक गुलाब से बहारें चांँदनी अंजुमन में
शामिल होता वो शान से अंतिम संस्कार के श्रद्धांजलि देने में
उम्र अपनी लगा देता छवि रूप अनेक सौंदर्य सुगंध देने में
पर जब वो कभी मुरझाता झर झर निर्झर झर जाता
देता नहीं अनुमति वह प्रकृति को उसके तोड़ने में
खुशबू देकर मिटा देता वज़ूद अपना
सीख देकर मिट्टी के मिलने में।