वेदना
वेदना
![](https://cdn.storymirror.com/static/1pximage.jpeg)
![](https://cdn.storymirror.com/static/1pximage.jpeg)
टूट चुकी हूं भीतर से
जीने से डर लगता है,
मौत भी मांगी मिली नहीं
घुट-घुट मरना पड़ता है।
तुझे क्या कहूं तू कौन है मेरा
तुमको खुद अपनाया था
फेरे संग लगाकर तुमसे
जीवनसाथी बनाया था।
तू रौंद रहा अब जीवन मेरा
फिर भी सहना पड़ता है,
घुट-घुट मरना पड़ता है।
कभी साथ हम जीते थे
काम साथ हम करते थे
मैं थी शायद सुंदरतम
तुम हम पर मरते थे।
सपने टुकड़े-टुकड़े हो गये
अब अपनों से डर लगता है,
घुट-घुट मरना पड़ता है।
घर है मेरा कुटुम्ब भी मेरा
तिनका-तिनका मेरा है
गड़ रही हूं आंखों में
क्यूंकि सब कुछ मेरा है।
धन की लालच, हवस की इच्छा
की खातिर तू लड़ता है
घुट-घुट मरना पड़ता है।
हर रोज, हर घड़ी
हर सांसों में मर रही
जिम्मेदारी बोझिल हुई
फिर भी लेकर चल रही।
आंसू सूख गये नैनों में
बिन आंसू के रोना पड़ता है
घुट-घुट मरना पड़ता है।
कब तक संभालू खुद को
जब अपने ही कातिल बने
हर तरह से शूल बो दिये
पग-पग में बेड़ी लगे।
अबला धर्म को पालकर
मान बचाना पड़ता है
घुट-घुट मरना पड़ता है।
अब मुझको मीत मिल गया
सपनों का उम्मीद मिल गया
कह लेती हूं सुन लेती हूं
हंस लेती हूं रो लेती हूं।
कन्धों पर सर रख लेती हूं
अब पराया अपना लगता है
घुट-घुट मरना पड़ता है।
जो मेरा नही, ओ मेरा है
मेरा सांझ है सवेरा है
रिश्तों की डोर से भी गहरा,
बंधने वाला फेरा है।
रब समझ के पूजा करती
“अशोक” जीवन लगता है,
घुट-घुट मरना पड़ता है।