वादों वाली शाम
वादों वाली शाम
वो तुम्हारे किये गए वादों वाली शाम भी,
कब की आकर खाली हाथ लौट गई।
फिर उसके पीछे-पीछे सितारों वाली उजियारी,
रात भी बिन गुनगुनाये ही भरे दिल से लौट गई।
फिर एक नयी आस वाली भोर आयी भी और
बिन कुछ बताये अनमुनि सी हो कर लौट गयी।
फिर एक नयी दोपहर भी आकर बैरंग ही लौट गयी,
उसके ठीक पीछे पीछे तुम्हारे वादे वाली शाम आई।
काफी देर इधर-उधर अकेली ही टहलती रही और
फिर थक कर अपने घुटनों में सर छुपाये ही बैठी रही।
फिर काफी देर अकेले ढीठ की तरह वहीं बैठी रही
फिर बे-मन से कुछ मन ही मन बड़बड़ाते हुए लौट गयी।
गर ना हो पता तो कर लो पता मुझे नहीं लगता अब
वो शाम फिर कभी लौट कर आएगी तुम्हारे द्वार !