उठूँगा मैं धूल सा
उठूँगा मैं धूल सा
तुम मुझे गिरा देना
अपने विकृत मिथ्या से।
छलनी कर देना
मेरे चित्त को अपने
घृणित शब्दों के बाणों से।
थोड़ा जला भी देना अपनी
बुरी नजरों की ज्वाला से।
कुचल देना मुझे धूल में
अपनी अकड़ से।
फिर भी मैं उठूँगा
उसी धूल सा.....…
ज़रा ध्यान रखना अपनी
प्रिय मिथ्या का
कहीं उसे भगा ना ले जाऊँ।
ध्यान रखना अपने प्यारे
शब्दों के बाणों को
कहीं हवाओं के रुख़
उनको उलटा ना मोड़ दे।
ख़ास ख्याल रखना अपने
अनमोल नज़रों का
जिनमें खटकता था मैं
और मेरी चंचलता
कहीं धूल.......
उनमें ना पड़ जाये।
फिर देखोगे कैसे
अपनी अकड़ को
उस धूल में मिलते हुए?
