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PANKAJ GUPTA

Others

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PANKAJ GUPTA

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वो दिन

वो दिन

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अब खुद ही गिरने लगे हैं  

आम के टिकोरे, पेड़ से

शायद उन्हें भी पता है

पत्थर मारने वाला बचपन

अब मोबाइल में व्यस्त है।


अब भूल गये है बढ़ई

'गिल्ली डंडा' बनाना

शायद उन्हें भी पता है

मिट्टी में खेलने वाला बचपन

अब चहारदीवारी में कैद है।


अब 'जमीर' ही नहीं रहा

'जंजीर' खेलने का

'जमीन' जो मर चुके

पक्की इमारतों के नीचे दबकर।


वो 'जायका' गायब है

आलू-गोभी की सब्जी से

शायद मिट्टी ने प्यार 

लुटाना छोड़ दिया

केमिकल्स के मोह में।


वो सुकून भी गायब है

शादी के पार्टियों में

'पंडाल' में सोने वाला बचपन

अब सोने लगा है 'ऑनलाइन'

माशूका के आगोश में।


कहाँ है वो पर्दे का रामायण!

शायद दुबक के छिप गया है

किसी ठंडी जगह

'हॉट-स्टार' की भीषण तपन से।


अब बैठने की फुर्सत कहां!

एक साथ 'टी०वी०' वाले कमरे में

ज्ञान की गंगा जो बहती है

'ओ०टी०टी०' नामक स्रोत से। 


क़त्ल किया है हमनें 

उस मासूम 'गौरैयां' का

3जी, 4जी, 5जी के

प्रेम में पागल होकर।


महकते नहीं अब 

घर में आँगन की मिट्टी

हमनें जो उनका

गला घोंट रखा है।


हमें खुशी होती थी

'ताज़िया' देखकर

और उन्हें 'नवरात्र' में

नाटक का 'पात्र' बनकर।


लौटा दो यार 

उस जमाने को

'जीना' चाहते है

'मरना' नहीं।।


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