Untitled
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दीप जला देना देहरी पर
मेरे सफर की
कोई सीमा नहीं है
कई रातें उनींदी
कई दिन धूप में
मेरे सफर में
आधार नहीं अंत नहीं
सफर की मंज़िल नहीं
तुम जब कहते हो
मुझे प्रेम है तुमसे
तब मैं समझने की कोशिश करती हूँ
प्रेम का होना
कभी-कभी जब अंधेरी रात में
तुम रख कर मेरे सिरहाने पर अपना हाथ
चूम लेते हो मेरा माथा बिना कुछ कहे
तब मैं महसूस करती
हूँ प्रेम का होना
भाषा हृदय की अलग
वाणी की अलग
नयनों की अलग
स्पर्शों की अलग
रिश्ते कुदरत बनाती
इंसान उसे निभाता
जिसके रहे भाव जैसे
प्रेम के फल उसे मिले वैसे
डूबती शाम
अकेलेपन की परछाई
तब कृष्ण बहुत पास
बैठे बंसी बजाते नजर आते हैं