उलझनें
उलझनें
चाहती तो मैं ये बेशक नहीं
के मेरी अमावस की रात का चांद बनो तुम ,
चाहत तो बस इतनी है कि
उस रात में मेरा हाथ थामे साथ रहो तुम ।
चलो बिछड़ भी गए इक रोज़ मज़बूरी के हाथों मज़बूर हुए हम दो परिंदे ,
ख्वाहिश बस इतनी होगी
के आबाद रहो तुम ।
और जो कुछ वक्त के बाद छूट जाए वो आदत नहीं,
बल्कि जो मरते दम तक साथ रहे
वो जज़्बात बनो तुम ।
चाहती तो नहीं के झूठी दिलासा दिए,
मुझमें तुम्हारे लौट आने की उम्मीद भरो तुम।
अपितु शौक से वो आंसू बन जाना ,
जो खुशी और ग़म दोनों में आ जाए
और मैं खुद से कहूॅं , हॉं साथ हो तुम ।
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शायद मैं बोझ हूॅं तुम्हारे सर का
इसीलिए तो अक्सर नकारते हो तुम ,
पर फिर भी जिसकी एक झलक पे
होठों पर आ जाती है वो मुस्कान हो तुम ।
कोसो दूर भागते हो मुझसे ,और दूर हो तुम,
ना जाने ये कैसा भ्रम है जो एहसास कराता है
के अब तलक पास हो तुम ।
चले जाओगे तो चले जाना
रोकूंगी भी किस हक से तुम्हें ॽ
जब तुम्हारे मन में ही ये सवाल उठता है,
आखिर मेरी हो कौन तुम ॽॽ
फरयाद अस रब से तब भी यही रहेगी
के दिल से साथ रहो तुम ।
क्योंकि मैं ये प्रश्न खुद से कभी नहीं पूछती
के आखिर मेरे हो कौन तुम ॽॽ